बढ़ती दूरियाँ      Publish Date : 20/08/2025

                                बढ़ती दूरियाँ

                                                                                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

हम अपने धर्म के उपदेशों और महान धार्मिक सिद्धांतों पर ध्यान देते हुए अपने आध्यात्मिक गुरुओं और गुरुओं द्वारा हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णित महान सत्य के बारे में दी गई धार्मिक सलाह भी प्राप्त करते हैं। एक तरह से, ये धार्मिक गतिविधियाँ और मार्गदर्शन ही हमें प्रगति के पथ पर अग्रसर करने में सहायक सिद्व होते हैं।

हालाँकि, हमारे धर्म में इस बात पर ज़ोर दिया जाता है कि हमें सामाजिक दृष्टिकोण से धर्म के दोनों पक्षों पर ध्यान देना चाहिएः जिनमें से पहला, भौतिक सुख और दूसरा है, आध्यात्मिक आनंद। यदि हम धर्म के केवल दूसरे पक्ष पर ही अधिक ध्यान देते हैं और पहले पक्ष की उपेक्षा करते हैं, तो हमारा धार्मिक दृष्टिकोण पूर्ण नहीं हो पाता है। वास्तव में, यदि सामाजिक शांति और सुरक्षा उपलब्ध नहीं है, तो कोई भी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकता। यदि स्वस्थ सामाजिक जीवन का वातावरण उपलब्ध नहीं है, तो महान व्यक्तियों का जन्म होना भी कठिन है और समाज का आध्यात्मिक विकास भी कठिन प्रतीत होता है।

पहले के ज़माने में हम इस बात को नज़रअंदाज़ करते रहे हैं कि हमारा राष्ट्रीय जीवन कुशल, स्वतंत्र और स्वाभिमानी होना बहुत अनिवार्य है। आज हम अपने इस लक्ष्य से विमुख हो गए कि हमें एक संगठित सामाजिक प्राणी के रूप में रहना है। हम यह भूल गए कि हम एक विशाल मानव शक्ति हैं और इसके विपरीत आज हम अकेलेपन में डूबते जा रहे हैं।

एक बार विशाल सभा आयोजित की गई, जहाँ लगभग बीस हज़ार लोग उपस्थित थे। सभा चल ही रही थी कि अचानक श्रोताओं में से एक व्यक्ति चिल्लाया, “देखो, वह आ गया!” और पूरी सभा एकदम से बिखर गई और वहाँ भगदड़ मच गई।

लोग अपने जूते चप्पल वहीं छोड़कर भागने लगे, भागते हुए एक व्यक्ति ने दूसरे से पूछा, “क्या हुआ है? हम क्यों भाग रहे हैं?” तो इस पर भगते हुए दूसरे व्यक्ति ने कहा, “मुझे नहीं पता, मैं तो केवल इसलिए भाग रहा हूँ, क्योंकि बाकी सब लोग भाग रहे थे।” पहले व्यक्ति ने उससे फिर पूछा, “लेकिन आपने किसी से पूछा क्यों नहीं कि वास्तव में क्या हुआ है?” तो दूसरे व्यक्ति ने कहा, “मैं कैसे पूछ सकता हूँ? मैं तो अकेला ही था!” इस “अकेले होने” की भावना या एकता के अभाव के कारण, हम दूसरों के सुख-दुःख में समान रूप से भाग नहीं ले पाते और इसके परिणाम दुख देने वाले होते हैं, इससे लोगों के बीच दूरियाँ भी बढ़ती ही जाती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक महान राष्ट्र के रूप में विश्व गुरु बनना चाहते हैं, तो हमें अपनी इन सभी कमियों को दूर करना ही होगा ।

कुछ लोगों को इस बात पर बहुत संदेह है कि हमारा समाज और हमारा राष्ट्र, जो इतनी सारी जातियों, उपजातियों, संप्रदायों, भाषाओं, रीति-रिवाजों, परंपराओं, वेशभूषाओं और खान-पान में बँटा हुआ है, वह एकजुट रह सकता है? हमें यह याद रखना होगा कि इन स्पष्ट भिन्नताओं के बीच एकता की एक अंतर्निहित धारा, जो अत्यंत असाधारण और प्रवाहमान है, गहराई से प्रवाहित हो रही है वह हिंदुत्व है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।