
मोह का प्रबंधन कैसे करें Publish Date : 17/07/2025
मोह का प्रबंधन कैसे करें
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
मोह एक ऐसा मनोभाव है, जो कम या अधिक हर प्राणी में उपजता है। संतुलित स्तर तक मोह मानव जीवन के लिए बहुविध उपयोगी तथा लाभकारी भी होता है। यह दैनिक जीवन को सक्रिय एवं सरस बनाता है। जीवन उद्देश्य के निर्धारण में भी सहयोगी होता है। मनुष्यों में मोहभाव से सामाजिक व्यवस्था में भी मदद मिलती है। इससे सामाजिक जुड़ाव और परस्पर सहयोग बढ़ता है। परन्तु यही मोह जब बहुत अधिक बढ़ जाता है तो वह मनुष्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अतिरंजित रूप में मोह आसक्ति का रूप ले लेता है। यह मनुष्य के विचार और संकल्पों को दूषित करता है।
मोह के इसी स्वरूप के लिए श्री रामचरित्र मानस में कहा गया है, ‘मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।’ यानी सब रोगों, दुखों की जड़ मोह (अज्ञान) है। आसक्ति के मोह से ग्रस्त होकर ही अर्जुन जैसे धुरंधर धनुर्धर भी युद्ध मैदान में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर भीरु हो गए थे। ऐसे मोहग्रस्त अर्जुन को मोह से मुक्त करने के प्राथमिक उद्देश्य से ही श्रीकृष्ण ने गीता के संदेशों को प्रस्तुत किया था।
गीता के संदेशों में मोह को एक अंधकारमय जंगल कहा गया है। ऐसे जंगल में प्राणी को कुछ सूझता नहीं है, रोशनी की चाह में वह इधर-उधर भटकता रहता है और भ्रम का शिकार होता है। गीता ने बताया गया है कि जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति मनुष्य में अतिशय मोह होता है उससे उसे आसक्ति हो जाती है। ‘यह मेरा है’ के भाव से मनुष्य उसे सदैव अपने पास रखना चाहता है, लेकिन यह हमेशा संभव नहीं हो सकता, क्योंकि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है।
संसार में सब कुछ अस्थायी और क्षणिक होता है। ऐसी हालत उत्पन्न होने पर केवल दुख और पीड़ा ही प्राप्त होती है। इसलिए अच्छा है कि मोह को कम से कम रखा जाए।
अतः आवश्यक है कि हम अपने जीवन को शांति और सुकून से निर्वहन करने के लिए अपने सभी प्रकार के मोहों को उनके उचित स्तर तक प्रबंधित रखें। इसे आसक्ति का स्वरूप तो बिलकुल भी न लेने दें।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।