विश्व संघर्ष और हिन्दू विचारधारा का महत्व      Publish Date : 16/07/2025

           विश्व संघर्ष और हिन्दू विचारधारा का महत्व

                                                                                                                                                    प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

राष्ट्रवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि वास्तव में इसे समाप्त करना बुद्धिमानी नहीं होगी। इसलिए, जो प्रश्न शेष रह जाता है, वह केवल यही है कि “राष्ट्रीय आकांक्षाओं और वैश्विक कल्याण के दो हितों में सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए?” इस दिशा में अनेक प्रयास हुए हैं। कभी-कभी यह भी तर्क दिया जाता है कि साम्राज्यवाद भी इसी दिशा में एक बड़ा प्रयास है। ऐसा कहा जाता है कि छोटे राष्ट्रों को एक बड़े साम्राज्य की इकाई बनाना और उनके बीच आपसी संघर्ष के मूल कारण को दूर करना साम्राज्यवाद का उद्देश्य है।

हालाँकि, वास्तव में इन सभी प्रयासों के पीछे उद्देश्य अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करना था। इसलिए, साम्राज्यवाद राष्ट्रों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असमर्थ रहा।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना राष्ट्रों के बीच संघर्ष को समाप्त करने और विश्व एकता लाने के उद्देश्य से की गई थी। लेकिन दो दशक से भी कम समय बीता था कि राष्ट्र संघ का जहाज बेलगाम राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और उसके परिणामस्वरूप होने वाले युद्धों की चट्टान पर टूटकर नष्ट हो गया। एक और विश्व युद्ध हुआ जो पिछले सभी युद्धों से भी अधिक भयानक था और जिसने हर जगह मौत और विनाश फैला दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित संयुक्त राष्ट्र की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। कश्मीर में हमारा अनुभव हमें बताता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ निष्पक्ष न्याय करने, उपद्रवी सदस्य देशों को रोकने और राष्ट्रों के बीच सम्मानजनक समझौता कराने में सक्षम नहीं है। दूसरी ओर यह राष्ट्रीय संघर्ष का अखाड़ा बन गया है। शक्तिशाली राष्ट्र इस संगठन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयास कर रहे हैं ताकि वे अपने विस्तारवादी एजेंडे को आगे बढ़ा सकें। तीसरे विश्व युद्ध की काली छाया जो एक क्षण में पूरी विश्व संस्कृति को नष्ट करने की क्षमता रखती है, सदैव विश्व पर छाती रही है।

इससे पता चलता है कि दुनिया के राष्ट्र पूरी दुनिया की भलाई के लिए मित्रवत तरीके से एक साथ आने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय गौरव की भावनाएँ भी अधिक से अधिक असंतुलित होती जा रही हैं। राष्ट्रों की महत्वाकांक्षाएँ और भी मजबूत होती जा रही हैं। दुनिया के नक्शे पर कुछ नए राष्ट्र भी उभर रहे हैं। पूरी दुनिया में राष्ट्रों के बीच संघर्ष पूरी ताकत से हो रहे हैं।

संक्षेप में कहें तो राष्ट्रवाद की ज्वाला को बुझाना कठिन है। आज तक राष्ट्रों के बीच सद्भाव लाने के सभी प्रयास सफल नहीं हुए हैं और पूरी दुनिया परमाणु मिसाइलों से होने वाले अंधाधुंध विनाश की खतरनाक आशंका से जूझ रही है। ऐसी स्थिति में मानव जाति का उत्थान किस तरह संभव है? ऐसा लगता है कि परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न इस चुनौती का समाधान अभी किसी के पास नहीं है। दुनिया के सभी दार्शनिक इस मुद्दे पर दुविधा में हैं।

लेकिन इस प्रश्न का उत्तर हम हिन्दुओं के पास है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।