
अंधेरे के बाद प्रकाश Publish Date : 09/07/2025
अंधेरे के बाद प्रकाश
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
श्रीमद्भगवद्गीता से प्रेरित एक जीवन बदल देने वाली कहानी-
रवि एक मध्यमवर्गीय परिवार का इकलौता बेटा था। उसके पिता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे और माँ एक घरेलू महिला थी। जब रवि दस साल का था, उसके पिता की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। उस दिन से उसके जीवन में अंधेरा उतर आया था। माँ ने सिलाई का काम शुरू किया, और रवि को पढ़ाई में जोड़ें रखा। रवि समझ गया था कि अब उसके कंधों पर न केवल अपनी ज़िंदगी, बल्कि माँ की उम्मीदों का भी भार है।
वह बचपन से ही पढ़ाई में होशियार था। उसने ठान लिया था कि वह बड़ा होकर एक दिन अफसर बनेगा- एक ऐसा बेटा जो अपनी माँ के सारे दुःख मिटा सके। स्कूल खत्म हुआ, कॉलेज भी किसी तरह पूरा किया गया, और फिर उसने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी।
रवि सुबह चार बजे उठता, मंदिर में जाकर दीप जलाता और फिर किताबों में डूब जाता। उसे केवल एक चीज़ दिखाई देती थी- सफलता। पर पहली बार में असफल हुआ। माँ ने कहा, “कोई बात नहीं बेटा, भगवान पर भरोसा रखो” और वह फिर जुट गया। पर दूसरी बार भी नतीजा वही निकला।
अब रिश्तेदारों ने ताने मारना शुरू कर दिए। कोई कहता- “इससे नहीं होगा”, कोई हँसते हुए कहता- “इसे नौकरी नहीं, नींद चाहिए।” रवि अब खुद से भी नज़रें नहीं मिला पाता था। माँ हर रोज़ उसके लिए चुपचाप चाय बनाती, सिर पर हाथ फेरती, लेकिन वो स्नेह अब रवि को अपने लिए एक बोझ सा लगने लगा था।
तीसरी बार जब उसका चयन फिर नहीं हुआ, तो रवि पूरी तरह टूट गया। उसने कमरे में खुद को बंद कर लिया। फोन बंद कर दिया। दोस्तों से बात बंद कर दी। खाना पीना छोड़ दिया। एक रात वह छत पर गया और रेलिंग के किनारे खड़ा होकर खुद से बोला- ‘अब और नहीं होता। बस, अब खत्म कर दूँ सबकुछ।’
तभी पीछे से माँ की धीमी लेकिन सधी हुई आवाज़ आई- “रुक जा बेटा” रवि पलटा, उसकी आँखें आँसुओं से भरी थीं। माँ ने चुपचाप एक पुरानी किताब उसके हाथ में रखी और बोली- “ये तेरे पापा की गीता है। आज इसे एक बार पढ़ ले, फिर जो मन करे कर लेना।”
रवि ने अनमने भाव से गीता के पन्ने पलटे। पहले पन्ने पर लिखा था-
‘जब मनुष्य मोह में फँस जाता है, तब वह अपने कर्तव्यों को भूल जाता है।’
फिर उसकी नज़र इस पंक्ति पर गई-
‘हे अर्जुन, तू अपने कर्म को कर, फल की चिंता मत कर।’
वो ठिठक गया। पहली बार उसे लगा जैसे ये शब्द किसी किताब के नहीं, उसके अपने जीवन के लिए लिखे गए हों। उसने पन्ने पलटे- हर पंक्ति जैसे उसके घावों पर मरहम बनकर उतर रही थी।
“आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। जो कुछ तू खो चुका है, शायद वो कभी तेरा था ही नहीं। और जो कुछ तेरा है, वो कभी तुझसे छिनेगा नहीं।”
रवि पूरी रात गीता पढ़ता रहा। उस रात पहली बार उसने अपने भीतर एक शांति महसूस की। उसे समझ आया कि वह अब तक केवल सफलता के पीछे भाग रहा था, लेकिन जीवन तो “कर्तव्य” निभाने का नाम है। परिणाम तो बस ईश्वर की इच्छा है।
अगली सुबह रवि उठा। उसने माँ के चरण छुए और मुस्कराकर बोला- ‘अब मैं फिर से लड़ूंगा, लेकिन इस बार हारने से नहीं डरूंगा। क्योंकि अब मुझे खुद पर नहीं, भगवान के न्याय पर भरोसा है।”
वह फिर से पढ़ने बैठ गया- लेकिन इस बार उसकी आँखों में केवल लक्ष्य नहीं, धैर्य भी था। मन में केवल जिद नहीं, समर्पण भी था और दिल में केवल डर नहीं, गीता का ज्ञान भी था।
छह महीने बाद रिजल्ट आया। इस बार वह सफल हुआ था। माँ की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन वो आँसू दुःख के नहीं, ईश्वर के प्रति आभार के थे।
लेखकः लेखक सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, मेरठ के प्रोफेसर हैं।