
वैचारिक मंथन Publish Date : 01/07/2025
वैचारिक मंथन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
जब समुद्र-मंथन हुआ तो उसमें अमृत भी निकला था और विष भी। अमृत तो देव और असुर दोनों पीना चाहते थे, लेकिन विष पीने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। अंत में देवाधिदेव महादेव विषपान करने के लिए तैयार हुए और वह पी गए सारा का सारा विष। विष तो विष ही है और यह जानलेवा भी होता है, परन्तु महादेव ने विष को अपने कंठ में ही रोक लिया और हृदय तक जाने नहीं दिया। हृदय मनुष्य के शरीर का वह महत्वपूर्ण अंग है, जो खाद्य तथा पेय पदार्थों से बने रक्त को सबसे पहले मस्तिष्क में भेजता है और मस्तिष्क उसका वितरण पूरे शरीर को आवश्यकतानुसार करता है।
जब मनुष्य अपनी मां के गर्भ में पलता है, तब वह अमृतपान करता रहता है। जब शिशु जन्म लेता है तब वह रोता है, क्योंकि अमृतपान से वह वंचित होने लगता है। बाह्य दुनिया को संसार-समुद्र कहा गया है। नवजात शिशु जन्म लेते ही बाह्य घात-प्रतिघात का शिकार होने लगता है। जन्म के प्रारंभिक वर्षों तक तो माता के रूप में जगदीश्वरी और पिता के रूप में जगदीश की छाया में वह रहता है, लेकिन आगे चलकर जब उस पर से यह छाया हट जाती है तो वह काम-क्रोध, मोह-लोभ तथा अन्यान्य नकारात्मक विकारों के असुरों का हमला होने लगता है।
देव रूप में जन्मे मनुष्य के मन में तमाम असुर अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। फिर उसमें बाह्य आकर्षण की इच्छा प्रबल हो जाती है। ऐसे में मनुष्य द्वंद्व में फंस जाता है और होने लगता है देव तथा असुर के बीच संघर्ष। फिर लोगों से कटुता और विवाद आदि का भाव जागृत होने लगता है।
यही वह अवस्था होती है जब मनुष्य को ‘मन के महल’ से निकल कर ‘विवेक के नारायण’ को जागृत करना चाहिए। विकारों के विष को महादेव की तरह खुद पी लेना चाहिए, लेकिन विवेकी मनुष्य को विकारों के जहर को हृदय की ओर नहीं बढ़ने देना चाहिए, क्योंकि विकार के हृदय तक पहुंचते ही प्रतिशोध की भावना जागृत होने लगेगी। मनुष्य को प्रतिक्रिया में अनर्गल काम नहीं करना चाहिए, बल्कि विवेक से अपने जीवन को संवारना चाहिए। इसके बाद ही मानव का पूरी तरह से विकास हो सकता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।