हिंदी के माध्यम से राष्ट्रीयता की विचारधारा मजबूत होने की प्रबल संभावना      Publish Date : 14/06/2025

हिंदी के माध्यम से राष्ट्रीयता की विचारधारा मजबूत होने की प्रबल संभावना

                                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

वर्चस्व पर संकट का कवच बनती हिंदी के विरोध वाली राजनीति

हिंदी को लेकर तमिलनाडु की राजनीति का आक्रामक होना कोई नई बात नहीं है। हिंदी के विरोध में जिस प्रकार से तमिलाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने रोजाना के आधार पर मोर्चा खोल रखा है, वह 1965 के हिंदी विरोधी आंदोलन की याद दिला रहा है। संवैधानिक प्रावधानों के चलते 26 जनवरी 1965 को हिंदी को राजभाषा के तौर पर जिम्मेदारी संभालनी थी, जिसके विरोध में सी ए अन्नादुरै की अगुआई में पूरी की पूरी हिंदी विरोध़ी राजनीति जमीन पर उतर आई थी। उस समय हिंदी विरोध के मूल केंद्र में तमिल उप-राष्ट्रीयता थी। उस समय की राजनीति के लिए यह साबित करना आसान था कि उस पर हिंदी थोपी जा रही है।

उस समय आज की तरह सूचना और संचार की सहूलियतें उपलब्ध नहीं थीं, लेकिन अब हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं। इसलिए स्टालिन के मौजूदा हिंदी विरोध की तह तक जाना जरूरी हो जाता है। उत्तर भारत की जो शैक्षिक स्थिति है, उसकी असलियत सबको पता है। उत्तर भारतीय विद्यार्थियों की आवक भी तमिलनाडु में खूब हो रही है। ऐसे माहौल में वैसे तो हिंदी विरोध के औचित्य पर ही सवाल उठता है। लंकिन फिर भी स्टालिन विरोध कर रहे हैं तो उसके अपने कारण भी हैं।

असल बात यह है कि तमिलनाडु की राजनीति में पिछली सदी के साठ के दशक से ही स्थानीय द्रविड़ राजनीति का वर्चस्व बना हुआ है। वहां कभी डीएमके तो कभी एआइडीएमके जैसी स्थानीय पार्टियां ही सत्ता की मलाई खाती रही हैं। हालांकि सही मायने में देखें तो ये दोनों महज स्थानीय पार्टियां ही नहीं हैं, बल्कि अपने-अपने हिसाब से तमिल उप-राष्ट्रीयता का भी प्रतिनिधित्व करती हैं।

तमिल उप-राष्ट्रीयता का होना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उसे राष्ट्रीयता पर कभी भी हावी नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह भी एक कड़वा सच  है कि तमिल उप-राष्ट्रीयता राष्ट्रीय मूल्यों पर जब तब हावी होती रही रही है। तमिल उप-राष्ट्रीयता के ही जरिए द्रविड़ राजनीति तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज रही है। लेकिन संचार और सूचना क्रांति के वर्तमान दौर में अब तमिल उप-राष्ट्रीयता वाली सोच को भी लगने लगा है कि अगर राज्य में हिंदी आई तो उसके द्वारा राष्ट्रीयता की विचारधारा मजबूत ही होगी। जिसका असर स्थानीय राजनीति पर भी पड़े बिना नहीं रहे सकेगा।

हिंदी या किसी भी सामान्य संपर्क भाषा के ज्यादा प्रचलन से कट्टरतावादी स्थानीय सोच को चोट पहुंचेगी और इसके साथ ही तमिल माटी में राष्ट्रीय राजनीति की जगह मजबूत होगी। जिसका आखिर में नतीजा हो सकता है कि द्रविड़ राजनीति की विदाई।

कह सकते हैं कि अब स्टालिन को यही डर सताने लगा है। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने त्रिभाषा फॉर्मूला स्वीकार कर लिया, नई शिक्षा नीति को राज्य में लागू होने दिया तो जिस स्थानीयता केंद्रित राजनीति वह या उनके साथी स्थानीय दल भावना प्रधान करते रहे हैं, उसका प्रभाव अब छीजने लगेगा। इससे स्थानीय राजनीति में उनका वर्चस्व कमजोर होगा और हो सकता है कि एक दौर ऐसा आए कि दूसरे राज्यों की तरह यहां भी राष्ट्रीय राजनीति ही हावी हो जाए।

वर्ष 1967 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद से कांग्रेस यहां की केंद्रीय राजनीति से बाहर है। तब से वह कभी डीएमके तो कभी एआइडीएमके की पिछलग्गू पार्टी ही बनी रही है। राज्य में कुछ ऐसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की भी रही है। इसके सम्बन्ध में यदि वर्ष 2024 के आम चुनावों को छोड़ दें तो बीजेपी को भी इन्हीं दलों की बैसाखी की हमेशा आस रही है।

हालांकि हाल के दिनों में पूर्व अधिकारी अन्नामलाई के जरिए बीजेपी राज्य में ताल ठोक रही है। अन्नामलाई को तमिलनाडु का खुला आसमान देने के लिए बीजेपी वहां के अपने पुराने नेताओं सी पी राधाकृष्णन और एल गणेशन को राजभवन तक भी भेज चुकी है। तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा के चुनाव आसन्न हैं। ऐसे में स्टालिन को इस बार लग रहा है कि बीजेपी के जरिए इस बार राष्ट्रीय राजनीति राज्य में अपनी ताकतवर पहुंच बना सकती है। अगर ऐसा होता है तो यह निश्चित है कि द्रविड़ राजनीति के वर्चस्व को निर्णायक चुनौती मिलेगी।

यही डर उन्हें हिंदी विरोध की ताजा आंच को जलाने के लिए मजबूर कर रहा है। हिंदीभाषी समाज, उत्तर भारतीय और राष्ट्रीय पहुंच वाली राजनीति को इस नजरिए को भी ध्यान में रखना होगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।