विनम्रता के साथ शक्ति भी होनी चाहिए      Publish Date : 07/05/2025

           विनम्रता के साथ शक्ति भी होनी चाहिए

                                                                                                                    प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

हमारा दर्शन हमें सिखाता है कि जब व्यक्ति में दूसरों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति हो, तो उसे विनम्र होना चाहिए। जब व्यक्ति में दूसरों को नीचा दिखाने की शक्ति आ जाए, तो उसे दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए। व्यक्ति को दूसरों की सेवा कब तक करनी चाहिए? जब वह ऐसी क्षमता प्राप्त कर ले कि लोग उसकी सेवा करने के लिए स्वेच्छा से तैयार हो जाना चाहिए।

ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण हमारे आदर्श हैं, बचपन से ही वे एक के बाद एक राक्षसों को परास्त करते गए और बाद में भगवद्गीता में अहिंसा का उपदेश दिया। उन्होंने कंस का वध किया और उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया, लेकिन समारोह में आमंत्रित राजाओं का स्वागत करने के लिए द्वार पर खड़े रहना पसंद किया। राजसूय यज्ञ के समय उन्हें मुख्य श्रद्धालु के रूप में सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया गया था, लेकिन उन्होंने अतिथियों और ऋषियों के भोजन के बाद बचे हुए भोजन को उठाने के लिए सेवा में रहना पसंद किया। हमारा महान दर्शन हमें यही सिखाता है।

महापुरुषों ने हमारे राष्ट्रीय व्यवहार के लिए विभिन्न आदर्श स्थापित किए हैं, क्योंकि उन्होंने इन आदर्शों को मानव कल्याण के सिद्धांतों के साथ-साथ आज की आवश्यकताओं से भी सर्वोत्त्म तरीके से जोड़ा है। राम और रावण के बीच युद्ध के समय की एक घटना है, जिसका वर्णन रामायण में सटीक रूप से किया गया है। लक्ष्मण ने रावण के पुत्र मेघनाद का वध किया। वे मेघनाद का सिर लेकर अपने शिविर स्थल पर लौटे। मेघनाद की पत्नी सुलोचना अपने पति के शव के साथ चिता पर सती होकर स्वयं बलिदान होना चाहती थी। वह मेघनाद का सिर सुरक्षित प्राप्त करने करने के लिए श्रीराम के शिविर की ओर बढ़ी। राम के सैनिकों ने एक सुंदर महिला को शिविर की ओर आते देखा और सोचा कि वह सीता है। वे बहुत खुश हुए।

यह सोचकर कि युद्ध समाप्त हो गया है, वह अपने हथियार नीचे रखने को तैयार हो गए। जब राम को इस खुशी के उत्सव के बारे में पता चला, तो उन्होंने उनसे कहा, “यह मत भूलो कि दस शीश और बीस भुजाओं वाला रावण अभी भी जीवित है। हम रावण के शव को पार करके ही लंका में प्रवेश कर सकेंगे और तब सीता मुक्त हो जाएगी। जब तक ऐसा न हो जाए, सीता को देखने की आशा मत करो इस बारे में कोई भ्रम मत रखो।”

श्रीराम को मानव मनोविज्ञान का पूरा ज्ञान था। वे रावण के मन को भली-भाँति समझते थे और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि रावण के हृदय में राक्षसी क्रूरता गहराई तक समा चुकी है, जिसे कभी भी अच्छाई में नहीं बदला जा सकता। केवल उनका सटीक निशाना ही उसे समाप्त कर सकता है। मानव जीवन के आदर्शों की रचना करते समय राम इस सत्य को अवश्य जानते थे कि ‘बुराई का अंत बुरे व्यक्ति के अंत के साथ ही होता है।’ रामचंद्र के जीवन के ये दो तथ्य ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम यानी सर्वश्रेष्ठ संयमी पुरूष बनाते हैं।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।