
व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने की आवश्यकता: समय की मांग Publish Date : 06/05/2025
व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने की आवश्यकता: समय की मांग
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जीवन में समृद्धि की इच्छा रखता है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है, सबको इसी दिशा में सोचना भी चाहिए, लेकिन यह इच्छा व्यक्तिवादी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि व्यक्ति अकेले नहीं रहता। पश्चिम के चिंतन ने हमारे स्वतंत्रता के प्रकाश को अंधकार में बदल दिया, जिससे लोगों के मन में स्वयं की स्वतंत्रता के बारे में कई भ्रामक विचार देखने को मिलते हैं।
हम समाज में रहते हैं, अकेले नहीं, हमारा अस्तित्व भी अकेले संभव ही नहीं है, एकांत थोड़े समय के लिए अच्छी कल्पना हो सकता है लेकिन व्यवहार में बहुत कष्ट दायक होता है। इसलिए हमारी स्वतंत्रता की भी सीमाएँ हैं जिन्हें हमें सदैव याद रखना चाहिए। इसे समझना और अपने दैनिक व्यवहार में लागू करना ही वास्तविक अर्थों में स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का मतलब तुच्छ या अहंकारी व्यवहार नहीं है, स्वतंत्रता की कसौटी संयम, आत्म-नियंत्रण और तर्कसंगत व्यवहार से तय होती है।
हममें से प्रत्येक व्यक्ति समाज का ही एक हिस्सा है लेकिन वह बनना नहीं चाहता, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से उसकी स्वतंत्रता का हनन होगा, जिससे वह अपनी इच्छाओं को पूरा नहीं कर सकेगा। समाज का अध्ययन इस बात का प्रमाण है कि जो लोग समाज का हिस्सा बनकर जीते हैं या आज भी जी रहे हैं वे अन्य की तुलना में अधिक संतुष्टि का अनुभव करते हैं और सुख की अनुभूति करते है। हमे यह याद रखना चाहिए कि समाज के प्रति हमारे कर्तव्य भी है जिसे पूरा करने के लिए हमे स्वयं को समाज का अंग बनाना होता है, यह बात अलग है कि समाज का हिस्सा बनकर मनुष्य सुरक्षा और समृद्धि का आश्वासन पाता है।
इस प्रकार हिंदू चिंतन में व्यक्ति, उसका परिवार और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। जब लोग सामाजिक जीवन में समान भावनाएँ साझा करते हैं तो उन्हें स्नेह, ईमानदारी और जीवन के सुसंगठित ताने-बाने का अनुभव होता है। वहीं इनके अभाव में सामाजिक एकता समाप्त हो जाएगी। यही कारण है कि स्नेहपूर्ण संबंधों का स्थान स्वार्थ, अहंकार, ईर्ष्या और घृणा जैसी बुराइयाँ ले लेती हैं। जिस वातावरण में सरल स्नेह भी नहीं होता, वहाँ सुव्यवस्थित और अनुशासित जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
हम उस सत्य को कोई भी नाम दे सकते हैं जो मातृभूमि के प्रति प्रेम और शुद्ध भक्ति को आत्मसात करता है और इस प्रकार एक स्वस्थ सामाजिक जीवन सुनिश्चित करता है जो हमें प्रकृति में परम सत्य की ओर ले जाता है। हमें याद रखना चाहिए कि हमारा राष्ट्रीय जीवन उच्च गुणों, एक धर्म, एक संस्कृति, समान गुणों, भावनाओं और आकांक्षाओं से बना है ।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।