
ग्लोबल वार्मिंग का कारण एवं इसका निवारण Publish Date : 21/03/2025
ग्लोबल वार्मिंग का कारण एवं इसका निवारण
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
एक लम्बे समय से मानव विकास के नाम पर औद्योगीकरण और नगरीकरण के लिए वनों की अनियंत्रित रूप से कटाई करता आ रहा है। इसके परिणाम स्वरूप धरती का तापमान बढ़ने लगा, बारिश भी कम होने लगी और मौसम ने अचानक अपना रूप बदलना शुरू कर दिया। इस प्रकार यदि मानव की एक-एक गतिविधि देखी जाए तो लगता है उसका विनाश अब निकट ही है। विकास के साथ-साथ विनाश भी अटल, लेकिन विनाश की इस प्रक्रिया को रोका भी जा सकता है, और इस गंभीर समस्या का उचित समाधान भी खोजा जा सकता है।
पिछले दस सालों में धरती के औसत तापमान में 0.3° से 0.6° की बढ़ोतरी हुई है। ब्रिटिश आर्थिक सेवा के प्रमुख ‘सर निकोल सस्टर्न’ के अनुसार आगामी कुछ वर्षों में अत्यधिक उत्सर्जन के चलते धरती का तापमान 2 से 4° सेल्सियस तक बढ़ सकता है। धरती की इस तपन से लगभग 30 प्रतिशत भूमि सूखा ग्रस्त हो जाएगी। अनाज की पैदावार कम हो जाएगी, जिसके चलते करोड़ों लोग भूखे रहने को मजबूर होंगे। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने से न्यूयार्क, लंदन, शंघाई, टोकियों, हांगकांग, मुम्बई व कोलकाता जैसे शहरों के आसपास के समुद्र का जल-स्तर बढ़ने से इन शहरों के डूबने की संभावना भी हो सकती है। जीव-जन्तुओं की लगभग 40 फीसदी प्रजतियाँ लुप्त हो जाएगी।
ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक मनुष्य और उसकी गतिविधियाँ जिम्मेदार हैं। मनुष्य ने प्राकृतिक नियंत्रण चक्र से छेड़छाड़ की है। सृष्टि में ग्लोबल वार्मिंग के विनियमन हेतु निम्नलिखित प्रमुख साधन हैः
(क) सूर्य की ऊर्जा उत्पादन में चक्रीय परिर्वतन।
(ख) धरती के परिभ्रमण में असामान्यता।
(ग) प्लेट टैकटानिक्स का महासागर और महाद्वीप के विरतरण पर प्रभाव।
(घ) ग्रीन हाऊस प्रभाव (इम्पैक्ट)।
उपरोक्त में से ग्रीन हाऊस प्रभाव सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अभाव में धरती का तापमान -18° ब् होता है। 95 प्रतिशत ग्रीन हाऊस प्रभाव का सहयोगी जल-वाष्प है। बाकी के 5 प्रतिशत हिस्से का 2-0.3 असर कार्बन डाई-आक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाऊस गैसों के कारण होता है। मानव द्वारा अपने लिए अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के प्रयास में की जा रही तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति तथा औद्योगिकरण की प्रक्रिया ही इसके मूल कारण है।
मनुष्य आरंभ से ही प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करता आ रहा है। प्राचीन काल में मनुष्य खाना पकाने हेतु तथा तापन के लिए लकड़ी तथा कोयले का प्रयोग करता था। 19वीं शताब्दी तक औद्योगिक ऊर्जा के लिए जानवरों का इस्तेमाल करता था-पवन चक्की तथा जल चक्की की मदद से अश्व-चक्की तथा बैल-चक्की आदि के अतिरिक्त हवा तथा जल-शक्ति का भी उपयोग होता था।
13वीं शताब्दी तथा उसके पहले से कोयले का खनन किया जाता था तथा इस को धातु को पिघलाने के काम में लाया जा रहा था। 17वीं शताब्दी में, इग्लैण्ड में ऊर्जा स्त्रोत की क्षमता के कारण कोयले का उपयोग बढ़ गया था। लकड़ी की अपर्याप्तता के कारण ही यह संकट उत्पत्र हुआ था। 18वींशताब्दी में अमेरिका में लकडी ही ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हुआ करती थी।
औद्योगिक क्रांति
18वीं सदी के पूर्वार्द्ध में आयी औद्योगिक क्रांति ने अति शक्तिशाली तथ सामर्थ्यवान ऊर्जा विकास की खोज के लिए मनुष्य को विवश किया। वर्ष 1463 में जेम्स वॉट ने स्टीम इंजन का आविष्कार किया। यह यातायात का बेहतर साधन था, परन्तु कोयले पर चलता था। वर्ष 1467 में ऐलेक्जेंडर बैक्यूरल ने फोटो-वोलटाइक सैल का आविष्कार किया। यह सौर ऊर्जा को प्रयोग में लाने का एक बेहतर प्रयास था।
परन्तु इसकी कार्य-क्षमता के कम होने के कारण इस पर शोध रूक गया। वर्ष 1800 में रेलगाड़ी का विकसितरूप सामने आया रेलगाड़ी यातायात का सर्वाेत्तम माध्यम बन गयी। कोयला एवं लकडी की खोज के बाद ईंधन के रूप में वर्ष 1859 में पेनसिलवेनिया में पेट्रोलियम को पहली बार खोज निकाला गया। पेट्रोलियम कोयले की तुलना में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाला ऊर्जा का एक स्रोत साधन था जो आसानी से उपलब्ध था एवं प्रदूषण भी कम पैदा करता था।
वर्ष 1861 में निकोलस ऑटो द्वारा इन्टरनल कम्बस्टन इंजन के आविष्कार के पश्चात विश्व का चित्रपट ही बदल गया। सड़कों पर गाड़ियाँ दौड़ने लगीं, कल-कारखानों में आधुनिक मशीनें इस्तेमाल होने लगीं। 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में स्टीम-टबाईन आविष्कार हुआ तथा कोयले पर चलने वाले ऊर्जा केन्द्र स्थापित हुए इसके पश्चात टेस्ला द्वारा ‘विधुत-मोटर’ का आविष्कार तथा ट्रांसफार्मर की रचना के फलस्वरूप ‘नियग्राफाल्स’ को प्रथम जल ऊर्जा केन्द्र में परिवर्तित किया गया।
20वीं शताब्दी के अन्त तक पेट्रोलियम अत्यधिक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्त्रोत के रूप में प्रयोग होने लगा था। पेड एवं पौधे वातावरण से कार्बन डाई-ऑक्साइड का उपयोग कर मूलभूत भोजन के निमार्ण हेतु कार्बाेहाइड्रेटस का संश्लेषण करते है। तथा ऑक्सीजन की मात्रा की वातावरण में वृद्धि करते हैं।
अंटार्कटिका में जमी बर्फ की अंदरूनी परतों में मौजूद हवा के विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि आज वातावरण में श्कार्बन डाई-ऑक्साइडश् की मात्रा पिछले साढ़े छः लाख वर्षों के दौरान किसी भी समय मापी गई अधिकतम बढ़ती है ‘कार्बन डाई-ऑक्साइड’ वातावरण में शीशे का काम करती है। शीशा प्रकाश को पार तो होने देता है लेकिन तापमान को नहीं सूर्य की किरणें वातावरण में उपस्थित वायु को पारकर धरती तक तो आ जाती है, परन्तु धरती से टकराकर इसका अधिकांश हिस्सा तापमान में बदल जाता है।
यदि वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा अधिक हो तो यह तापमान उसे पारवातावरण के बाहर नही जा सकता है। इसका परिणाम धरती है। समान्य तापमान में धीरे-धीरे वृद्धि होने लग जाती है, और औद्योगिक क्रांति के बाद यही हो रहा है।
पिछले 50 वर्षों से ताममान में होने वाली वृद्धि के पीछे अत्यधिक जल-वाष्प, कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मीथेन एवं ओजोन जैसी ग्रीन हाऊस प्रभाव में ग्रीन हाउस गैसों का प्रमुख योगदान है। सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस के स्त्रोत का योगदान जीवश्म ईंधन के रूप में पायी जाने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड एक ऐसी ही ग्रीन हाउस गैस है जिसका प्रमुख जीवश्म है।
ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित पर्यावरण और मानव जीवन दोनों ही चिंता के विषय है। एक अनुसंधान संस्था, के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव दिखाना शुरू हो गया है और यदि मानव जाति इसी तरह पृथ्वी का दुरूपयोग करती रही तो पृथ्वी का विनाश निकट है। अंटार्कटिक महाद्वीप में बर्फ का तेजी से पिघलना, समुद्र का बढ़ता जल-स्तर और मौसम में असामान्य बदलाव इत्यादि कुछ प्रभाव दिखने लगे है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण
ग्रीन हाउस प्रभाव जीवन के लिए उपयुक्त है तथा यह पृथ्वी का तापमान बनाए रखने में मदद करता है, यह एक प्राकृतिक घटना है। ग्रीन हाउस गैसो की सांद्रता तापमान बढ़ाने में मदद करती है। बहुत उच्च-तापमान में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देता है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए प्राथमिक कारण प्रदूषण है। इस प्रकार का प्रदूषण उत्पादित करने वाले प्रदूषणकारी पदार्थ पृथ्वी की सतह के ऊपरी वातावरण में ग्रीन हाउस गैंसों को इकटठा कर रहे है। अतः कई प्रकार के प्रदूषणकारी पदार्थ ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार साबित हो रहे है।
(i) कार्बन डाई-ऑक्साइड
इस प्रदूषण कारक गैस का प्राथमिक स्त्रोत गाड़ियों, चिमनियों आदि से निकलने वाला धुओं है। जीवाश्म ईंधन से जलने की प्रक्रिया में हवा में कार्बन और ऑक्सीजन को मिलाकर कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस घुल जाती है। औद्योगिक क्रांति के बाद से लेकर आज तक पर्यावरण में 35 प्रतिशत कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो गई है। कोयला, जल, विद्युत संयत्रों का इस्तेमाल भी कार्बन डाई-ऑक्साइड को बढ़ाने में मदद करता है और यही कार्बन डाइ-ऑक्साइड पृथ्वी का तापमान बढ़ाने में मदद करती है। अगर इसी प्रकार मानव जाति शहरीकरण, औद्योगीकरणऔर खेती के लिए वनों की कटाई जारी रखे तो कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा और भी बढ़ जाएगी।
पेड-पौधे अपनी प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा कार्बन डाई-ऑक्साइड को हवा से हटाने में मदद करते हैं। यदि इन्हीं पेड़ों को मनुष्य नष्ट करता रहा तो एक दिन पृथ्वी पर कार्बन डाई-ऑक्साइड ही भरी होगी। इसी कार्बन डाइ-ऑक्साइड से बढ़ने वाला तापमान अंटर्कटिक और टुंड्रा प्रदेश की बर्फ पिघला रहा है और जो कार्बन डाई-ऑक्साइड बर्फ में होती है उसे भी मुक्त कर रहा है। अगर इसी तरह बढ़ता तापमान उत्तरी खंड को पिघलाता रहा, तो पानी का स्तर बढ़ता जाएगा। पानी का बढ़ता स्तर आज भी मनुष्य को चेतावनी दे रहा है।
(ii) जल-वाष्प
जल-वाष्प भी कार्बन डाई-ऑक्साइड की तुलना में एक और अधिक प्रभावी ग्रीन हाउस गैस है। छव के मुताबिक पानी की भाप की सबसे प्रचुर मात्रा ग्रीन हाउस के वातावरण के भीतर रहती है। इसी बढती जल-वाष्प से ही पृथ्वी का तापमान बढ़ता है।
(iii) ओजोन
पृथ्वी के वातावरण में ओजोन भी एक ग्रीन हाउस गैस है। यह गैस हमारे वातावरण के स्ट्रेटोस्फियर में मौजूद होती है, जो पृथ्वी के लिए रक्षात्मक कवच का काम करती है बढता हुआ शहरीकरण व औद्योगीकरण इस ओजोन स्तर को नष्ट कर रहा है। कारखानों से निकलने वाली कार्बन डाई-ऑक्साइड व कार्बन मोनॉक्साइड गैसें इस ओजोन स्तर को नष्ट कर रही है, जिसका विपरीत परिणाम पशुओं और प्राणी मात्र पर हो रहा है, जैसे कि सूरज निकलने वाली पराबैंगनी किरणें सीधी पृथ्वी पर आ रही है। यही अति व्रीव किरणें मनुष्य की त्वचा को हानि पहुँचा रही है अगर इसी तरह पृथ्वी के ओजोन स्तर की मात्रा कम होती रही तो ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती रहेगी।
(iv) नाइट्रोजन ऑक्साइड
नाइट्रोजन ऑक्साइड भी एक ग्रीन हाउस गैस है, हालांकि ज्यादा नाइट्रोजन ऑक्साइड उर्वरकों के उपयोग से उत्पत्र होती है। जीवाश्म ईंधन के सड़ने-गलने से भी इस गैस की मात्रा में वृद्धि होती है
(v) विविध गैस
विविध गैसों में क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन भी एक है जो ज्यादा हानिकारक नहीं है। पृथ्वी के वायुमंडल में जो ओजोन स्तर है उसे यह गैस हानि पहुँचाती है। इस गैस का मूल कारण केवल मानव द्वारा इसका उत्पादन किया जाना है। वर्ष 1970 के दशक से इसके उत्पादन पर प्रतिबंध है।
यह कहा जा सकता है कि बहुत सी ग्रीन हाउस गैसें भी ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में उच्च ग्लोबल वार्मिंग की घटना के लिए मुख्य कारण, मानव गतिविधियां ही है। यद्यपि मानव की क्षमता इनको रोकने या इन करने से ग्लोबल वार्मिंग को धीमा किया जा सकता है।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरूकता
दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणामों को जाना है।ग्लोबल वार्मिंग से इस पृथ्वी पर अनेक असमान्य परिर्वतन हो रहे है। ग्लोबल वार्मिंग के परिणामों में बाढ़ आजकल, गर्मी, कृषि पर पडने वाले कुप्रभाव, ग्लेशियर पिघलना, कई प्रजातियों का विलुप्त होना और अनेकबीमारियाँ सम्मिलित है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से विदूषक मेंढक भी विलुप्त हो चुका है और आज कोस्टारिका के सुनहरे मेढ़क भी विलुप्ति की कगार पर है। कई जीवाणु उच्च सम्मान में तेजी से बढ़ते है। इसी गर्मी की वजह से विषाणुओं का संक्रमण होने की भी आंशका रहती है। यही समुद्री जीवन के तापमान की वृद्धि के प्रति संवेदनशील होते है।
ग्लोबल वार्मिंग का असर निश्चित रूप से पानी में रहने वाली प्रजतियों पर पड़ रहा है। एक सर्वेक्षण में समुद्री जीवने के तापमान में परिर्वतन भी होने का पता लगाया गया। वैज्ञानिकों के एक समूह ने हाल ही में साइबेरिया के टुन्ड्रा प्रदेश से कार्बन और मीथेन गैस के उर्त्सजन का अध्ययन किया। अगर इसी तरह पृथ्वी का तापमान बढ़ता रहा तो पृथ्वी ग्रह पर एक अस्थिरता पैदा हो सकती है और यही अस्थिरता समुद्र के स्तरा में 20 फीट तक की वृद्धि कर सकती है।
भारत पर खतरा
18वीं शताब्दी के अंतिम दौर से 19वीं शताब्दी के क्रांमिक दौर को औद्योगिक क्रांति का दौर कहा जाता है। इसी दौरान वाष्प की शक्ति का पता चला और फिर बडे-बडे उद्योगो ने दुनिया की शक्ल और सूरत ही बदल दी। शुरूआत में तो यह कहा गया कि दुनिया सुन्दर होती जा रही है। लेकिन फिर पर्यावरण में कुछ ऐसी हलचलें होने लगी, कि इस तीव्रगामी औद्योगीकरण को धीमा करने की बात होने लगी, लेकिन इस नीवगामी औद्योगीकरण को धीमा करने की बात होने लगी, लेकिन इसे रोकपाना इतना आसान नहीं हैं। कहते हैं कि पिछले लगभग, 200 सालों में धरती का औसत तापमान बढ़ा है। इससे क्या कुछ हो सकता है उसकी एक झलक पर्यावरण में हुई कुछ हलचलों से मिल चुकी है।
तापमान में वृद्धि का अर्थ
अमेरिका स्थित अंतरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र की संस्था नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडीज के अनुसार वर्ष 1950 में धरती का तापमान 13.8 डिग्री सेल्सियस था जो कि वर्ष 1999 में बढ़कर लगभग 14.5 डिग्री हो गया। उष्णकटिबंधीय देशों अपनी तरह के पुणे मे स्थित एकमात्र संस्थान भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के प्रोफसर जी.बी. पंत बताते है कि तीन डिग्री तातमान का बढ़ना वाकई चिंताजनक हो सकता है।
प्रोफेसर पंत ने कहा कि भारत में कई जगहों पर गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। धरती के तापमान में तीन डिग्री की वृद्धि से उन गर्म स्थलों का तापमान 5-6 डिग्री तक और ऊपर जा सकता है। अगर किसी स्थान का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस हो गया तो वह असह्न हो जाएगा और ऐसा अगर 200 साल में हुआ तो भी वह काफी गंभीर बात होगी।
ग्लोबल वार्मिंग के कृषि पर असर
ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत में जिन क्षेत्रों पर बुरा असर पड़ा उसका एक उदाहरण है कृषि क्षेत्र में गेहूँ के उत्पादन में आई गिरावट। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) ने जल वायु परिर्वतन के कारण खेती पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का पता लगाने के लिए एक बडी परियोजना शुरू की है। आईसीएआर के पूर्व महा-निदेशक पी. डी. शर्मा बताते है कि अचानक गर्मी के बढ़ने से गेंहूँ का उत्पादन एक समय में 21 करोड़ 20 लाख टन तक चला गया था, लेकिन उसके बाद यह बढने की बजाय कम होता जा रहा है।
मनुष्य ही ग्लोबल वार्मिंग का कारण
अमेरिका सरकार ने पहली बार माना है कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है। अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के कई वैज्ञानिकों का मानना है कि तेल-शोधन, विद्युत-उत्पादन, कल-पुर्जों का निर्माण एवं वाहन चलाने से संबधित मानव गतिविधयों ने ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाया है। ऐसी मानवीय गतिविधयों और ग्लोबल वार्मिंग के बीच की कड़ी की जानकारी के बावजूद अमेरिका सरकार ने अभी भी इस संधि पर हस्ताक्षर करने से मनाकर दिया है।
आज पूरा विश्व मानने लगा है कि धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, जिसका प्रमुख कारण है बढता प्रदूषण। आज पूरी दुनिया में कार इंजन चलाने के लिए जैविक ईंधन जलकर कार्बन डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ाता है। अमेरिका सरकार ने अपनी रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के विविध कारणों का एक ग्राफ प्रस्तुत किया जिसके अनुसार मनुष्य को ही ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण दर्शाया गया है।
महा सागर अम्लीकरण
जीवाश्म ईंधन के दहन एवं विभित्र उद्योगो द्वारा वातावरण में लगभग छह अरब मीट्रिक टन कार्बन डाई आक्साइड छोडी जा रही है। यही कार्बन डाई-आक्साइड ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाती है और यही गैस (ब्व²) महासागरों के पानी से रासायनिक क्रिया कर कार्बाेनिक अम्ल बनाती है। आज स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि लगभग 30 प्रतिशत पानी का अम्लीकरण हो चुका है। जिसका प्रमुख कारण कार्बन डाई-आक्साइड को माना जाता है।
अगर इसी तेजी से यह रासयनिक क्रिया होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पूरा पानी अम्ल के रूप में बदल जाएगा। वैज्ञनिकों का मानना है कि इस अम्लीकरण की रासयनिक क्रिया से होने वाले जल के वाष्पीकरण से बनने वाले बादलों से अम्लवर्षा (एसिड-रेन) होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। इससे संपूर्ण मानव जाति एवं पशु-पक्षियों समेत कई जीवों को हानि पहुँच सकती है। यह अम्लीकरण पानी के चभ् को कम कर रही है, जिससे एक लाख से भी अधिक प्रजतियों के विलुप्त होने की संभावना है।
ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव लगभग हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसका सबसे बड़ा प्रभाव है मौसम और प्रर्यावरण में आया बदलाव। यही बदलाव पृथ्वी पर कई प्राकृतिक विपित्तियों जैसें अपर्याप्त वर्षा का होना या सूखा पडना या असमय वर्षा का होना और बाढ़ आदि का कारण है। पृथ्वी के उत्तरी क्षेत्र में अब कई प्राकृतिक विपत्तियों है। भूकप की गतिविधयाँ होने लगी है, जिसका कारण बढता तापमान है। अगर तापमान बढता ही जाएगा तो ये गतिविधयाँ और भी तेज होती जांएगी। ये परिणाम आज हम लोग देख ही रहे है और कल हम भी इसके शिकार होंगे। इसलिये अभी से हम लोगों सचेत हुऐ ग्लोबल कालिंग के कारणों पर ध्यान देकर नियत करें।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।