
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव Publish Date : 13/05/2024
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव
डॉ0 आर. एस. सेंगर
ग्लोबल वार्मिंग के चलते पूरी दुनिया और विशेष रूप से भारत पर पड़ने वाले प्रभाव
दुनिया पर ऐसा होगा असर
बर्फ पिघलने से बाढ़ के हालात बनेंगे। उधर वर्ष 2050 तक 20 फीसदी देश जल संकट से घिर सकते हैं।
तापमान
मौसम वैज्ञानिकों के द्वारा वर्ष 2048 तक दुनिया के औसत तापमान में 4 डिग्री की बढ़ोतरी होने का अनुमान व्यक्त किया जा रहा है।
मौसम वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2030 तक दो लाख पचास हजार लोगों की मौतें होने लगेंगी हर साल बढ़ते तापमान की वजह से।
कृषि पैदावार में गिरावट आने से भुखमरी बढ़ेगी और अकाल के जैसे हालात भी हो सकते हैं।
गर्मी बढ़ने से ऊर्जा की मांग बढ़ेगी, जिससे वायु प्रदूषण तेजी से फैलेगा। इससे वर्ष 2030 तक
70 लाख मौतें हो सकती हैं।
20 अरब डॉलर तक का आर्थिक नुकसान भी हो सकता है जो केवल ग्लोबल वॉर्मिंग से ही सम्बन्धित होगा।
भारत पर ऐसा होगा असर
भारत की जीडीपी में आएगी सबसे ज्यादा गिरावट
$ 0.08
अमेरिका - -0.03
चीन - -0.62
रूस - -1.43
भारत - -2.45
हमारे यहां गर्मी से घटेंगे काम के घंटे
कृषि - निर्माण क्षेत्र 9 प्रतिशत
उद्योग - 5.3 प्रतिशत
सर्विस - 1.5 प्रतिशत
इतने छिन सकते हैं भारत फुलटाइम जॉब्स
पूरी दुनिया में - 08 करोड़
भारत में - 3.4 करोड़
चीन में - 0.5 करोड़
भारत के राज्यों में बीते 12 सालों में 47 डिग्री से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या
राजस्थान 145
आंध्र प्रदेश 111
ओडिशा 108
हरियाणा 101
झारखंड 99
मध्यप्रदेश 78
भारतः फसलों की पैदावार में होगी कमी,
वैश्विक तापमान (ग्लोबल वॉर्मिंग) और जलवायु परिवर्तन का किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पर मूलतः दो तरीकों से प्रभाव पड़ता है। पहला अल्पकालिक प्रभाव, जिसके अन्तर्गत चरम मौसमी घटनाओं (जैसे बहुत ज्यादा गर्मी, अत्यधिक ठंड या बेकाबू बारिश) के कारण होने वाले प्रत्यक्ष प्रभाव शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम विज्ञान संगठन के श्अनुसार चरम मौसमी घटनाओं के कारण सिर्फ 2022 में ही भारत को लगभग 4.2 अरब डॉलर का नुकसान हुआ था। दूसरे प्रभाव धीमे, मगर दीर्घकालिक होते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक दक्षिण-पश्चिम मानसून है। भारत की वार्षिक वर्षा का 75 प्रतिशत हिस्सा इसी से मिलता है। ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन की वजह से इसमें अनिश्चितता बढ़ी है। इसमें अनिश्चितता का मतलब होगा कृषि उत्पादन, ऊर्जा आपूर्ति और फलस्वरूप रोजगार पर दीर्घकालीन भयावह इस प्रकार के हो सकते हैं।
गहरा सकता है खाद्य आपूर्ति संकट और बढ़ेगी महंगाई
बढ़ते तापमान और बेमौसमी बारिश से फसलों को बहत नुकसान पहुंचता है। इससे उपज कम हो जाती है और बाजार में मांग बढ़ती है, जिसका सीधा संबंध महंगाई से है। इसके अलावा ऐसे नुकसान से निपटने के लिए राहत और बुनियादी ढांचे पर जो खर्च होता है, उसका नतीजा तमाम लोगों के लिए करों में वृद्धि के रूप में निकलता है। फिर फसलों की कम पैदावार हमारे विदेशी मुद्रा भंडार को भी प्रभावित करती है, क्योंकि सरकार उन फसलों के निर्यात पर पाबंदी लगा देती है. जिनकी उपज कम होती है। वर्ष 2022 में बढ़ते तापमान की वजह से गेहूं का उत्पादन कम हुआ और इस कारण भारत सरकार ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। जनवरी 2024 तक भारत में चीनी उत्पादन 5.28 प्रतिशत कम आंका गया है, जिसका प्रमुख कारण महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ने की उपज का कम होना माना गया है। भारत पिछले 6 वर्षों से चीनी का निर्यातक रहा है। लेकिन अब विश्लेषक अनुमान लगा रहे हैं कि शायद अगले साल तक भारत को चीनी आयात भी करनी पड़ सकती है।
जलवायु परिवर्तन के दौर में हानिकारक हैं- रसायनिक खेती
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव न केवल रसायनिक खेती पर ज्यादा व्यय होने की संभावना है वरन् रसायनिक खेती से जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभाव बढ़ने की भी पूरी संभावना है।
रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि की जलधारणा क्षमता कम होती है। अतः एक साथ अधिक वर्षा या कई दिन की सूखा में भूमि में जल संचय न होने से फसल उत्पादन कम होगा।
फसल को संतुलित पोषण न मिल पाने से उसकी सूखा व रोग-कीट के प्रकोप को सहने की क्षमता कम हो जायेगी।
यूरिया, डी. ए. पी. जैसे उर्वरको के प्रयोग से वायुमण्डल में नाइट्रस आक्साइड जैसी गैसे विसर्जित होती है जो कि वातावरण को गर्म करने में बड़ी भूमिका निभाती है अर्थात् जलवायु परिवर्तन में सहायक है। यूरिया बनाने व प्रयोग करने में प्रतिवर्ष 90 लाख टन नाइट्रस आक्साइड गैस वातावरण में जाकर धरती को गर्म कर रही है।।
एकल फसल जैसे कपास और गन्ना आदि के लगातार खेत में उत्पादन और वह भी एक-दो किस्मों के ही प्रयोग से इनकी विषम वातावरण को सहने की क्षमता कम होती जाती है।
इसी प्रकार विदेशी नस्लों के पशुओं में तापमान के उतार-चढ़ाव के सहने की क्षमता भी कम होती है। अतः उनका उत्पादन बनाये रखने के लिये आवास व दवाओं पर जयादा खर्च करना पड सकता है।
जैविक विधि से खेती करने से कम हो सकते है जलवायु परिवर्तन के खेती पर प्रभाव
जैविक खेती के माध्यम से निम्न प्रकार से जलवायु परिवर्तन के खेती पर होने वाले बुरे प्रभावों को इस प्रकार से कम किया जा सकता है।
1.जैविक खाद से प्रयोग से भूमि की जलधारणा क्षमता बढ़ती है, जिससे वर्षा की अनियमितता में भी फसल को पानी मिलता रहता है। साथ ही सिंचाई की संख्या भी कम हो जाती है। प्रयोगों से पाया गया है कि जैविक खाद के प्रयोग से ग्वार-तिल आदि फसलों ने 42 दिन के सूखाकाल के बाद भी उत्पादन दिया, जबकि रसायनिक खाद के द्वारा उगाई गई फसल 17 दिन बाद ही नष्ट हो गयी। इसी प्रकार गेहूं में जैविक प्रबंधन से 4 सिंचाई में ही अच्छी पैदावार प्राप्त हुई। अधिक वर्षा की स्थिति मे भूमि मे वायुसंचार बना रहता है। अतः फसल सड़ती या पीली नहीं पड़ती है। जैविक खाद से फसलों की जड़ों का अच्छा विकास होता है जो तेज हवा मे फसल को गिरने से बचाता है।
2. जैविक खाद के प्रयोग से संतुलित पोषण मिलने के कारण फसल में सूखा सहने व रोग-कीट से लड़ने की ताकत बढ़ती है। साथ ही तापमान की विषमता का भी कम प्रभाव पड़ता हैं ।
3. जैविक खेती का जैवविविधता, फसल चक्र आदि के होने से जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक होने वाले ताप, वर्षा, आद्रता आदि के परिवर्तनों का प्रभाव बहुत कम हो जाता है।
4. जैविक खाद के प्रयोगों से भूमि में 200-300 किलो कार्बन का अवशोषण (सीक्रेस्ट्रेशन) होता है जो कि जलवायु परिवर्तन को कम करने में सहायक होता है ।
5. जैविक खेती मे सभी आदान खेत पर ही बनाए जाते हैं। अतः रसायनिक खेती के मुकाबले लागत 30-40 प्रतिशत कम हो जाती है और यदि मौसम साथ नहीं भी देता तो कम से कम रसायनों के लिए लिया जाने वाला कर्ज तो नहीं चुकाना पड़ता है।
अन्त में जो धरती को जीवन देती वही है जैविक खेती।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।