
आलू की नई किस्म ‘‘कुफरी मोहन’’ का सफल उत्पादन Publish Date : 13/07/2025
आलू की नई किस्म ‘‘कुफरी मोहन’’ का सफल उत्पादन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं गरिमा शर्मा
आलू की एक नई किस्म केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला, हिमाचल प्रदेश के द्वारा तैयार की गई है, इस किसम को ‘‘कुफरी मोहन’’ नाम दिया गया है। यह मध्यम अवधि वाली यानी 90 दिन में परिपक्व होने वाली किस्म है। इस किस्म के कंद देखने में सफेद क्रीम रंग के, अंडाकार व एकरूपता लिए हुए होते हैं।
यह किस्म पछेती अंगमारी यानी लेट ब्लाइट के लिए प्रतिरोधी है। यह किस्म उत्तरी व पूर्वी मैदानों में उगाने के लिए सही पाई गई है। उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में ‘‘कुफरी बहार’’ और पूर्व मैदानी इलाकों में ‘‘कुफरी ज्योति’’ की तुलना में यह किस्म अधिक उपज देती है।
वर्ष 2017-18 में इस किस्म की सिधुगंगा के मैदानी इलाकों में कारोबारी खेती करने के लिए सिफारिश की गई है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 40 क्विटल तक उपज दे देती है।
जलवायु
आलू के सफल उत्पादन के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। आलू की अधिक पैदावार लेने के लिए कम तापमान की आवश्यकता होती है, क्योंकि 20 डिग्री सैल्सियस से अधिक तापमान पर कंदों का बनना रुक जाता है।
कम तापमान, मध्यम प्रकाश अवधि के दिनों और नाइट्रोजन की कमी वाली अवस्था में कंद बनने की प्रक्रिया जल्दी शुरू हो जाती है। आलू की फसल पर पाले का बुरा असर पड़ता है।
उपयुक्त मृदा
वैसे तो आलू को तमाम तरह की मृदाओं में उगाया जा सकता है, पर इसकी उच्च गुणवत्ता वाली अधिक पैदावार लेने के लिए उत्तम जल-निकास वाली जीवांशयुक्त रेतीली दोमट मृदा सबसे अच्छी मानी गई है। जैसे-जैसे जमीन के पीएच मान में बढ़ोतरी होती जाती है, वैसे-वैसे ही आलू की पैदावार में कमी होती जाती है।
खेत की तैयारी
आलू के कंदों की बढ़वार जमीन के अंदर होती है इसलिए खेत की तैयारी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, जबकि ज्यादातर आलू उत्पादक किसान इस ओर सही तरीके से ध्यान नहीं देते हैं। इसके चलते उन्हें आलू की कम पैदावार मिलती है। अतः आलू के खेत की तैयारी बड़ी सावधानी से करनी चाहिए। इसके लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उस के बाद दूसरी तीसरी जुताई हैरो या देशी हल से आरपार करें। आखिरी जुताई के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि मिट्टी भुरभुरी और समतल हो जाए और भूमि में नमी भी बनी रहे।
मिट्टी का उपचार
एक हेक्टेयर खेत के लिए 25 किलोग्राम जैविक खाद में 2.5 किलोग्राम प्रोटैक्टर (ट्राइकोडर्मा विरडी) मिला कर छाया में 2-3 दिन तक रखने के बाद मिट्टी में मिला कर जुताई कर दें। ऐसा करने पर आलू की पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
खाद एवं उर्वरक
आलू की भरपूर पैदावार लेने के लिए मिट्टी की जांच बहुत ही जरूरी है, परन्तु आलू उत्पादक किसान इस ओर ध्यान नहीं देते हैं, जबकि खेत की मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।
अगर किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके तो ऐसी हालत में कृषि विभाग द्वारा सिफारिश की गई मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।
नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय कुंड़ों में डालें। नाइट्रोजन की आधी बची मात्रा को बोआई के 25-30 दिन बाद डालें।
खेत की तैयारी के समय 15-20 क्विटल गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए।
बुआई का सही समय
आलू की बुआई का सही समय उस की किस्म व जलवायु पर निर्भर करती है। उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में आलू की मुख्य फसल की बुआई का सही समय सितंबर से नवंबर माह तक माना जाता है। लेकिन आलू की बुआई दिसंबर माह तक की जाती है।
बीज की मात्रा
आलू के कंदों की प्रति हेक्टेयर मात्रा कई बातों पर निर्भर करती है, जैसे कंदों का आकार, पंक्ति से पंक्ति की दूरी, पौधों की आपसी दूरी आदि।
आमतौर पर आलू की एक हेक्टेयर फसल बोने के लिए 15-20 क्विटल कंद पर्याप्त होते हैं। आलू के कंदों का वजन 30-40 ग्राम होना चाहिए।
बीजोपचार
आलू की फसल को रोगों से बचाने के लिए कंदों को बुआई से पहले कार्बेन्डाजिम नामक दवा (1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) का घोल बना कर आधा घंटे तक डुबो कर रखने के बाद बुवाई करें।
बीजोपचार के बाद कंदों को 3 फीसदी बोरिक एसिड (300 ग्राम प्रति 10 लिटर पानी) के घोल से उपचारित करें। एक बार बनाए गए घोल का 3 बार प्रयोग कर सकते हैं। इस के बाद दूसरा घोल बनाएं, बीजोपचार के बाद कंदों को छाया में सुखा कर खेत की बुवाई करें।
बुवाई करने की विधि
भारत में आलू के कंदों को बोने के लिए कई विधियों का उपयोग किया जाता है, जो जमीन की किस्म, खेत में नमी, मजदूर और कृषि यंत्रों पर निर्भर करती है।
किसान आलू के कंदों को बोने के लिए निम्न विधियों का उपयोग करते हैं:
समतल जमीन में आलू बोनाः इस विधि में खेत भली-भांति तैयार कर रस्सी की मदद से सीधी कतारें बना ली जाती हैं और आपसी दूरी 50-60 सेंटीमीटर रखी जाती है। कतारों में 15-20 सेंटीमीटर की दूरी पर कंद बो दिए जाते हैं। इन्हीं कतारों पर हैंड हो की मदद से उथले कुंड़ बना कर इन कुंड़ों में कंद बोने के बाद मिट्टी डाल कर खेत को समतल कर दिया जाता है।
मेंड़ों पर आलू के कंद बोनाः खेत को तैयार करने के बाद 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर मेंड़ों को बनाया जाता है। उस के बाद 15-20 सैंटीमीटर की दूरी पर 4-5 सेंटीमीटर की गहराई पर कंद बो दिए जाते हैं।
आलू बोने के बाद मिट्टी चढ़ानाः इस विधि में 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारें खींच ली जाती हैं। इस के बाद इन कतारों में 15-20 सेंटीमीटर की दूरी पर आलू के कंद रख दिए जाते हैं। इस के बाद फावड़े की मदद से इन कंदों को ढक दिया जाता है।
नोटः बोने के लिए पूरे कंदों का ही उपयोग करें, क्योंकि कटे हुए कंदों में फफूंदीजनित रोगों के लगने का डर रहता है। किसी कारणवश बोने के लिए बड़े कंदों का प्रयोग करना पड़े, तो पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए।
सिंचाई और जल निकासः आलू उत्पादन में सिंचाई एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। अतः इस ओर सही ध्यान देना जरूरी है।
- आलू के कंदों को हमेशा पलेवा कर के ही बोएं।
- पहली सिचाई आलू के कंद बोने के 25 दिन बाद करनी चाहिए।
- अगर जमीन में नमी की कमी हो, तो सिंचाई पहले भी की जा सकती है।
- पहली सिंचाई हलकी करनी चाहिए और बाद की सिंचाइयां गहरी करनी चाहिए, पर इस बात का ध्यान रखें कि मेंड़ें पूरी तरह से सिंचाई के पानी न डूबने पाएं।
- 15-20 दिन के बाद फिर से सिंचाई करनी चाहिए।
- हलकी जमीन में 6-10 और भारी जमीन में 3-4 सिंचाइयों की जरूरत होती है।
- अगर किसी कारणवश आलू के खेत में पानी जमा हो जाए, तो उसे निकालने का पुख्ता इंतजाम करें, वरना फसल पीली पड़ कर खराब हो जाती है।
पौध संरक्षण उपाय
खरपतवार नियंत्रणः आलू की फसल के साथ तमाम तरह के खरपतवार उग आते हैं जो फसल के साथ पोषक तत्त्वों, नमी, धूप, स्थान वगैरह के लिए प्रतिस्पर्धा़ करते हैं। इस के अलावा कीड़ों व रोगों के लगने की आशंका भी बनी रहती है। इसके चलते फसल के विकास, बढ़ोतरी और उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है।
आलू के खरपतवारों के नियंत्रण के लिए निराई गुड़ाई की जाती है, जबकि उन के जल्दी नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशकों का भी इस्तेमाल किया जाता है।
कीटों पर नियंत्रण
माहूः यह कीट हरे या काले रंग का होता है है जो 2 मिलीमीटर लंबा होता है। यह कीट पत्तियों और शाखाओं को चूसता है। इस कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर पत्तियां नीचे की ओर मुड़ जाती हैं। इस के पंखदार कीट विषाणु रोग फैलाने में सहायक होते हैं।
इस कीट के नियंत्रण के लिए फॉरेट 10जी नामक दवा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई करते समय कुंड़ों में डालें।
हरा तेलाः इस कीट के निम्फ और प्रौढ़ दोनों ही पौधों के कोमल अंगों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं। इस वजह से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों के किनारे झुलस जाते हैं।
इस हरा तेला कीट पर नियंत्रण पाने के लिए मोनोक्रोटाफास का 0.3 फीसदी घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए।
एपीलेकना कीटः यह कीट सफेद या सलेटी रंग का होता है. इस का शरीर मुड़ा हुआ व सिर भूरे रंग का होता है। यह कीट जमीन के अंदर रहता है, जो पौधों की जड़ों को खाता है।
इस के अलावा यह कीट आलू के कंदों में उथले गोलाकार छेद बना देता है, जिस के चलते कंदों के बाजार भाव पर बुरा असर पड़ता है।
इस कीट के नियंत्रण के लिए खेत की तैयारी के समय 30 किलोग्राम कार्बोफ्यूरॉन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए।
रोग नियंत्रण
अगेता झुलसाः यह रोग आल्टरनेरिया सोलेनाई नामक फफूंदी के कारण होता है।
नीचे की पतियां सब से पहले रोग का शिकार होती हैं। वहां से यह रोग ऊपर की ओर बढ़ता है। इस के चलते पत्तियों पर जहां तही छोटे-छोटे धब्बे उभर आते हैं, जो बाद में भूरे या काले रंग के हो जाते हैं। नीचे की पत्तियां सुख कर गिरने लगती हैं और यह रोग कंद बनने से पहले लगता है।
इस रोग के नियंत्रण के लिए डायथेन जैड 78.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पनों पर छिड़काव करना वाहिए। यदि जरूरत हो, तो 15 दिन के बाद दोबारा छिड़काव करना चाहिए।
शुष्क विगलनः यह केरूलियम नायिका काकी यह रोल फ्यूजेरियम यह रोग भंडारण के समय होता है। रोग की शुरुआती अवस्था में कंदों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं, जो बाद में बढ़ कर चिपके दिखाई देते हैं। इससे आलू का छिलका सिकुड़ जाता है। अगर कंदों को बीज के लिए इस्तेमाल में लाना हो तो उन्हें ऐगालोल 3 (0.3 फीसदी) घोल से 10 मिनट तक उपचारित कर के बोएं।
भूरा विगलनः यह रोग स्यूडोमोनास सोलानेसियम नामक फफूंदी के द्वारा फैलता है। नतीजतन, सारा पौधा मुरझा कर गिर जाता है। कंद काटने पर भूरे दिखाई देते हैं। रोग रहित कंदों को बोने से इस रोग से छुटकारा पाया जा सकता है।
सामान्य स्कैबः यह रोग स्टेप्टोमाइसिनस्क्रैबीज नामक जीवाणु के कारण फैलता है। इस रोग के कारण कंदों पर 3 मिलीमीटर गहरे और 1 सेंटीमीटर से कम व्यास के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। बचाव के लिए बुवाई से पहले कंदों को 3 फीसदी बोरिक एसिड से आधा घंटे तक उपचारित करना चाहिए। लंबा फसल चक अपनाएं बोआई के लिए सेहतमंद कंदों का इस्तेमाल करना चाहिए।
कब करें खुदाई
जब आलू के पौधे की पत्तियां सूखने लगें, उन की खुदाई करने के 2 हफ्ते पहले पौधों की शाखाओं को सतह से काट देना चाहिए। इस तकनीक को अपनाने से कंदों की त्वचा कठोर हो जाती है और खुदाई के समय कंदों की त्वचा उत्तरने की आशंका नहीं रहती है। आलू की खुदाई खुरपी, फावड़ा या पोटैटो डिगर से की जाती है।
उपज
आलू की उपज कई बातों पर निर्भर करती है। इनमें मिट्टी की किस्म, जलवायु, उगाई जाने वाली किस्में और फसल सुरक्षा आदि खास हैं। यदि इस नई किस्म ‘‘कुफरी मोहन’’ को सही तरीके से बोया जाए, तो प्रति हेक्टेयर 40 क्विटल तक उपज हासिल हो सकती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।