कृषि सहायक और बेहद लाभदायक व्यवसाय है बकरी पालन      Publish Date : 20/03/2025

कृषि सहायक और बेहद लाभदायक व्यवसाय है बकरी पालन

कृषि के साथ सहायक व्यवसाय के रूप में पशुपालन यथा-गाय, भैंस, बैल, बकरी, भेड़, मत्स्य, मुर्गी और मधुमक्खी आदि का पालन किया जाता हैं। बकरी पालन, एक ऐसा व्यवसाय है, जिसे बहुत कम पूंजी और कम जगह में भी सरलता से किया जा सकता है। बकरी एक लघु आकार का पशु है, जिसे बहुत आसानी से कम जबह में भी पाला जा सकता है। इसका पालन सीमान्त और भूमिहीन किसानों के द्वारा दूध तथा मांस के लिए किया जाता है। इसके अलावा बकरी की खाल, बाल, रेशों का भी व्यावसायिक महत्व है। मेंगनी एवं मूत्र, जो बिछावन पर इकट्ठे किए जाते हैं, उनका खेती में खाद के रूप में उपयोग किया जाता है।

आदिकाल से पशुपालन लाभदायी

मानव आदिकाल से ही कृषि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पशुओं का पालन करता आया है। देश के बंजर, दुर्गम पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में भेड़ और बकरियों का पालन विशेष रूप से किया जाता है। इन्हें पालने वालों में मुखयतः भूमिहीन, सीमान्त किसानों, घुमन्तू/खानाबदोश जातियों के लोग होते हैं। बकरियों को पालने का उद्देश्य इनसे दूध और मांस प्राप्त करने के साथ-साथ इनके विक्रय से आय प्राप्त करना होता है। इस तरह बकरियां अपने देश में करोड़ों लोगों को जीविका/रोजगार का साधन प्रदान करती हैं। देश के विभिन्न भागों की भिन्न जलवायु में बकरी जैसा छोटे आकार के पशु को आसानी से पाला जा सकता है। इसके पालन में न किसी विशेष प्रकार के आहार आदि की आवश्यकता होती है न ही और किसी खास किस्म के बड़े आवास या विशेष जलवायु की जरूरत पड़ती है। बकरी पालन महिलाओं और बच्चों की सहायता से बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। बकरी पालन की लोकप्रियता और इसका व्यावसायीकरण देश में निरंतर बढ़ रहा है। कुछ लोग बड़े स्तर पर बकरी फार्मों का संचालन सफलतापूर्वक कर भी रहे हैं।

देश की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में बकरी जैसे लघु आकार के पशु बहुत अधिक योगदान दे रहे हैं। पिछले 2-3 दशकों से बकरियों का मांस के लिए वध किए जाने की ऊंची सालाना दर होते ग्रामीण आजीविका का स्रोत बकरी पालन हुए भी विकासशील देशों में बकरियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह बकरियों के सामाजिक-आर्थिक महत्व को दिखाता है। इसके विकास में प्राकृतिक रूप से अधोलिखित कारक सहायक सिद्ध हो रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

जलवायु में सामंजस्य बैठाने की विशेष क्षमता

बकरियों में तरह-तरह की जलवायु में सामंजस्य बैठाने की विशेष क्षमता है। इस कारण बकरियां अपने देश के अलग-अलग तरह के भौगोलिक क्षेत्रों में आसानी से पाली जा रही हैं। कई नस्लों में एक से ज्यादा  मेमने पैदा करने की क्षमता होती है। ये ब्याने के पश्चात अन्य पशु प्रजातियों की अपेक्षा पुनः प्रजनन के लिए शीघ्र तैयार हो जाती हैं। गाय या सूअर के मांस के विपरीत बकरी का मांस सर्वग्राही है यानी इसे सभी धर्मों के अनुयायी खाते हैं।

बहुउपयोगी उत्पाद की जनक

बकरियों की सबसे बड़ी विशेषता मनुष्य और पशुओं के लिए गैर उपयोगी/कम/गौण पदार्थों को बहुत उपयोगी उत्पादों जैसे-दूध और मांस, दूसरे उत्पाद/उपउत्पाद रेशा, बाल, खाल, खाद आदि में बदलने की सामर्थ्य एवं क्षमता है। इसके दूध में औषधीय गुण होते हैं, क्योंकि ये विभिन्न प्रकार की घास, झाड़ियां (बेरी, जरबेरी, छोंकरा, करील, बबूल, हींस) वृक्षों की पत्तियां (बरगद, पीपल, पाकर, गूलर, शहतूत, कटहल, जामुन, नीम, कचनार, अरूसा, महुआ आदि) और वृक्षों की पकी सूखी फलियां (देसी बबूल, सुबबूल, सिरस) आदि खाती हैं।

संख्या, क्षेत्र और जनन चक्र का महत्व

बकरी पालन को आर्थिक रूप से फायदेमन्द बनाने के लिए 95 बकरी तथा 5 बकरे पालने आवश्यक होते हैं। औसत रूप से एक बकरी के लिए एक वर्ग मीटर का क्षेत्र चाहिए। किसी भी प्रकार के पशु पालन व्यवसाय की सफलता में उसके प्रजनन (जननचक्र) का विशेष महत्व होता है, जो जननचक्र की नियमितता और निरंतरता पर निर्भर करता है। उचित जननचक्र को अपनाकर पशु की जनन क्षमता में कई गुना बढ़ोतरी की जा सकती है। सही जननचक्र के माध्यम से उस पशु के बच्चों की संख्या तथा दूध प्राप्ति की मात्रा निर्धारित होती है। 

बकरी लगभग डेढ़ वर्ष की अवस्था में मेमने देने योग्य हो जाती है तथा पांच से छह महीने में मेमने पैदा करती है। सामान्यतः एक बकरी दो से तीन मेमनों को जन्म देती है। वैसे जहां तक बकरियों के प्रजनन का संबंध है तो इनके प्रजनन का सर्वाधिक उपयुक्त काल मई के दूसरे सप्ताह से लेकर जुलाई तक होता है। ये बकरियां अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से लेकर दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक मेमने पैदा करती हैं। इसी प्रकार नवंबर और दिसंबर का मौसम प्रजनन के लिए अनुकूल होता है। इस मौसम में गर्भधारण करने वाली बकरियां मार्च-अप्रैल तक मेमनों को जन्म देती हैं। भारतीय नस्ल (प्रजाति) की बकरियों के जनन अभिलक्षणों में विभेद होने के कारण उनकी प्रजनन क्षमता भी एक समान नहीं होती है। यदि पूरे जनन को एक चक्र के रूप में मान लें, तो इससे संबंधित प्रक्रियाओं को मुख्य रूप से चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है, जो  एक-दूसरे से जुड़े हैं।

सामयिक गर्भ निदान

गाभिन बकरियों के गर्भ की जांच जननचक्र का दूसरा चरण है। इसकी उचित समय पर पुष्टि प्रभावी प्रक्षेत्र प्रबंध तथा लाभकारी बकरी पालन की दृष्टि से आवश्यक है। बकरी का गर्भकाल लगभग 5 माह (145-152 दिनों) का होता है। बकरी के गर्भाधान के 18-21 दिनों के बाद गर्मी में न आने के दूसरे कारण भी हो सकते हैं। जब बकरियों को गर्भावस्था में उचित आहार तथा पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है तो गर्भपात की आशंका बढ़ जाती है तथा कमजोर मेमने पैदा होते हैं।

इसके साथ ही गैर गर्भिन बकरियों के रखरखाव पर अनावश्यक खर्चा करना पड़ता है। समय रहते फिर से गर्भाधान न करवाने से बकरीपालन से अपेक्षित लाभ नहीं मिलता है। एक स्वस्थ रेवड़ में गर्भधारण की दर 78 से 75 प्रतिशत होती है। बकरियों में गर्भाधान के अनेक तरीके हैं। गर्भाधान के तीन सप्ताह बाद फिर मद (गर्मी) के लक्षण प्रकट न करना, गर्भधारण पता करने का एक तरीका है जिसे अधिकतर बकरीपालक अपनाते हैं। इसके साथ-साथ गर्भ की सही जांच गर्भाधान के 80 से 90 दिनों बाद पेट का उभार देखकर (उदर विधि) पशु चिकित्सा द्वारा करवा लेनी चाहिए।

प्रजनन

जननचक्र के प्रथम चरण की शुरुआत बकरी के प्रजनन से होती है। बकरी पालन की सफलता उत्तम प्रजनन पर निर्भर करती है, इसे सफलता की कुंजी कहना गलत नहीं होगा। हर नस्ल की बकरी एक निश्चित आय और शारीरिक वजन (लैंगिक परिपक्वता) प्राप्त करने के पश्चात ही गर्भाधान के योग्य होती है। दूसरी पशु प्रजातियों की तरह ही  बकरियों की प्रजनन क्षमता, आयु बढ़ने के साथ बढ़ती है जो 2 से 5 वर्ष की आयु अधिकतम होती है। बकरियों में प्रजनन क्षमता सात वर्ष की आयु तक बनी रहती है। इसके बाद धीरे-धीरे घटने लगती है।

लगभग 10 वर्ष की आयु तक मेमने पैदा करने में बकरियां  सक्षम होती हैं, किन्तु अधिकांश बकरीपालक इन्हें 7 से 8 वर्ष की आयु के बाद अपने रेवड़ से हटा देते हैं। नर बकरे 2 से 6 वर्ष की अवस्था तक गर्भाधान करने योग्य बने रहते हैं। दूध देने वाली बकरी की प्रजातियों में प्रति ब्यांत मेमने देने की दर मांस के लिए पाली जाने वाली बकरियों की अपेक्षा कम होती है।

मदकाल

भारतीय प्रजाति की बकरियां लगभग पूरे साल ही ऋतु (गर्मी) में आती रहती हैं। यद्यपि इसकी आवृत्ति घटती-बढ़ती रहती है, तथापि रेवड़ की स्वस्थ बकरियां गर्भ न ठहरने पर 17 से 21 दिनों के अंतराल पर नियमित ऋतुचक्र (मदचक्र) में आती रहती हैं। इसके कारण प्रजनन प्रक्रिया साल भर चलती रहती है। बकरी पालन में प्रजनन को इस प्रकार समायोजित करना चाहिए कि नवजात मेमनों के स्वास्थ्य के लिए मौसम अनुकूल बना रहे। इसके साथ ही चारा संसाधनों की प्रचुर उपलब्धता बनी रहे, ताकि आगे चलकर विक्रय के लिए बाजार मांग की पूर्ति होती रहे।

बकरियां 24 से 28 घंटे तक मदकाल में रहती हैं। इसी सीमित अवधि में बकरे को समागम का अवसर देती हैं। इस दौरान नैसर्गिक या    कृत्रिम गर्भाधान कराने पर वे गर्भित हो जाती हैं। मदकाल में आई बकरियों का पता करने के लिए बकरीपालक 50 से 60 बकरियों के समूह में एक टीजर बकरा सुबह और शाम आधा-आधा घंटा उनके आसपास घुमाते हैं।

अधिक उत्तेजना, दाना-जल कम खाना और मिमियाना। थोड़े-थोड़े अंतराल से बार-बार पेशाब करना या तेजी से पूंछ हिलाना। झुंड की दूसरी बकरियों पर आरोहण/चढ़ना और अन्य बकरियों को अपने ऊपर आरोहण करने देना। योनि में सूजन और योनि मार्ग से थोड़ी मात्रा में पारदर्शी द्रव का गिरना, जो कभी-कभी पूंछ पर लगा भी देखा जा सकता है। दुधारू बकरियों में दूध की मात्रा में कमी आ जाना।

बकरी पालन की विशेषताएं

  • बकरी आकार में छोटी और स्वभाव से शान्त प्रकृति की होती हैं।
  • इनको रखने के लिए कम जगह की आवश्यकता पड़ती है।
  • ये हर प्रकार की जलवायु में रह सकती हैं।
  • इनको पालने में खर्चा काफी कम है।
  • किसी भी अन्य पशु की तुलना में ये दाना कम खाती हैं।
  • बकरी हर प्रकार के वृक्ष-पौधे और झाड़ियों को खा सकती हैं।
  • बकरी, मेमने जनने के लिए जल्दी तैयार हो जाती हैं।
  • बकरी पालने में कोई भी सामाजिक या धार्मिक बाधा नहीं है।
  • बाजार में बकरी के मांस की मांग लगातार बढ़ रही है।
  • इस व्यवसाय को करने में जोखिम काफी कम है।
  • विपणन (मार्केटिंग) में कोई कठिनाई नहीं आती।
  • बकरी पालन व्यवसाय शुरू करने के लिए कम पूंजी की आवश्यकता होती है।
  • कोई भी बेरोजगार युवक या किसान इस व्यवसाय को शुरू कर सकता है।
  • बैंकों से ऋण भी आसानी से मिल जाता है।

प्रसव

प्रसव पीड़ा शुरू में हल्की और बाद में तीव्र होने लगती है। यह लक्षण इस बात का संकेत हैं कि बकरी शीघ्र ब्याने वाली है। सामान्यतः प्रसव वेदना प्रारंभ होने के 3  से 4 घंटे में बकरी मेमने को जन्म दे देती है। पहली बार ब्याने पर कुछ अधिक समय लेती है। मेमना बाहर आने से पहले एक झिल्लीनुमा चमकीला गुब्बारा निकलता है। अधिकतर बकरियां लेट कर मेमना देती हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि उपरोक्त सभी बढ़ती उपयोगिता बकरियों की लक्षणों के आधार पर ऋतुमयी बकरियों को  पहचाना जा सकता है। प्रजनन के 15 से 20 दिनों पहले से यदि बकरियों के लिए दाने की मात्रा 250 से 500 ग्राम प्रतिदिन की दर से बढ़ा दी जाए तो, इसका प्रजनन और गर्भधारण की दर पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। परिणामतः प्रति ब्यांत अधिक मेमने पैदा होते हैं।

ऋतु में आई हर बकरी को ऋतु (गर्मी) के लक्षण प्रकट करने के लिए 10 से 12 घंटे पश्चात उत्तम प्रजाति के बीजू बकरे से या    कृत्रिम गर्भाधान विधि से गर्भित कराएं। यदि बकरी 24 घंटे बाद भी गर्मी में रहती है तो उसे फिर से 10 से 12 घंटे के अंतराल से उसी बकरे से गाभिन कराएं। ये बकरियां अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक मेमने देती हैं। इसी प्रकार नवंबर और दिसंबर का मौसम प्रजनन के लिए अनुकूल है। इस मौसम में गर्भधारण करने वाली बकरियां मार्च-अप्रैल तक मेमने देती हैं। इस तरह से एक वर्ष में दो-चार बकरियों को गाभिन करवाने पर लगभग 60 से 70 प्रतिशत बकरियां मेमने देती हैं।

गर्भ निदान के अभाव में बकरियों को गर्भावस्था में उचित आहार और पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है। यह गर्भपात की आशंका को बढ़ा देता है तथा कमजोर मेमने पैदा होते हैं। इसके साथ ही खाली/गैरगाभिन बकरियों के रखरखाव पर अनावश्यक व्यय करना पड़ता है। समय रहते फिर से गर्भाधान न करवाने से बकरी पालन व्यवसाय से अपेक्षित लाभ नहीं मिलता है। 

गर्भकाल में प्रसव क्रिया

ब्याने वाली प्रत्येक बकरी को रखने के लिए 21” × 21” × 21” आकार का लकड़ी का बक्सा रखें। इसमें भी सूखी घास या जूट के बोरे का बिछौना बिछा दें। बकरीपालकों को चाहिए कि वे ब्याने वाली बकरियों का सुबह-शाम अवश्य देखें, ताकि ब्याने के समय का आसानी से पूर्वानुमान हो सके। बकरी के जैसे-जैसे ब्याने का समय निकट आता जाता है, उनमें अनेक परिवर्तन दिखायी देने लगते हैं। इनकी बेचैनी बढ़ जाती है।

बकरी के अयन के आकार में एकाएक बढ़ोतरी हो जाती है। थनों में चमक तथा फूलापन दृष्टिगोचर होने लगता है। पहली बार ब्याने वाली अधिकांश बकरियों के थनों में दूध आता है। बकरी के योनि मार्ग से पीले रंग का लसलसा और गाढ़ा स्राव निकलना आरंभ हो जाता है। बकरी रेवड़ में एकान्त स्थान पर उठती-बैठती है। ऐसी बकरी ब्याने के कुछ घंटे पूर्व बार-बार उठती-बैठती तथा अनमनी हो जाती है।

बकरियों की उत्पादन क्षमता बनाए रखने के लिए जननचक्र की निरंतरता आवश्यक है ताकि प्रसव के बाद बकरियों को शीघ्र ऋतुमयी होने से उन्हें पुनः प्रजनित किया जा सके। इस प्रक्रिया को अपनाने से दो ब्यांतों के मध्य अंतराल (ब्यांत अंतराल) में कमी आती है और क्षमता में वृद्धि होती है। सामान्य प्रसव में मेमने के दोनों पैर और सिर योनि मार्ग से बाहर आते हैं। इसके बाद शरीर का शेष भाग बाहर आ जाता है। सामान्यतः बकरी की जेर ब्याने के 3 से 6 घंटे के अंदर निकल आती है।

रोग, उपचार तथा अन्य सावधानियां

बकरी पालन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वे स्वस्थ तथा निरोगी रहें। यदि वे अस्वस्थ या रोगी हो जाएं, तो उन रोगों को पहचानकर तत्काल उपचार किया जाए। इससे बकरियों को मृत्यु से बचाकर आर्थिक हानि को कम किया जा सकता है। देश में बकरियों के प्रमुख रोग हैं- मुंहपका, खुरपका, पेट के कीटे (कृमि), खुजली आदि। सामान्यतः ये रोग वर्षा ऋतु में होते हैं। इसलिए बरसात आते ही बकरियों को रोगों से बचाने की कोशिश करनी चाहिए। ये सभी रोग बहुत तेजी से फैलते हैं। इसलिए इन रोगों के लक्षण देखते ही यथाशीघ्र उपचार के उपाय करने चाहिए।

इन रोगों का देसी इलाज भी प्रभावी होता है अन्यथा पशु चिकित्सक को दिखाकर उपचार करवाना चाहिए। बकरियों की रक्षा के लिए दूसरी जरूरी सावधानियां बरतनी चाहिए। जंगली एवं हिंसक पशुओं से रक्षा के पर्याप्त उपाय करने चाहिए। मेमनों को कुत्तों से दूर रखना चाहिए। इन्हें खेतों से भी दूर रखना चाहिए, क्योंकि ये हरेभरे खेतों में चरने को दौड़ पड़ती हैं। इस कारण अक्सर किसानों में आपसी विवाद उत्पन्न हो जाते हैं।

प्रसवोपरान्त प्रजनन

एक जननचक्र सफल प्रजनन से प्रारंभ होकर सामान्य प्रसव के साथ पूर्ण हो जाता है। बकरियों की उत्पादन क्षमता बनाए रखने के लिए जननचक्र में निरंतरता आवश्यक है। इससे प्रसव पश्चात बकरियों को जल्दी ऋतुमयी होने से उन्हें पुनः प्रजनित किया जा सकताहै। इस प्रक्रिया को अपनाने से दो ब्यांतों के बीच अंतराल में कमी आती है तथा क्षमता में वृद्धि होती है।

प्रसव व प्रसवोपरान्त ऋतुचक्र में आने का अंतराल छोटी नस्लों (जखराना, जमुनापारी, बीटल) में 130 से 171 दिनों तक होता है। जननचक्र की पुनरावृत्ति के लिए बकरीपालक अपने रेवड़ में नस्ल के अनुसार पुनः गर्भाधान करवाकर बकरी की उत्पादन क्षमता का लाभ उठा सकते हैं।