अंजीर और बेडू की लाभकारी खेती वैज्ञानिक विधि से करें किसान      Publish Date : 29/08/2025

अंजीर और बेडू की लाभकारी खेती वैज्ञानिक विधि से करें किसान

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

देश के पहाड़ी राज्य उत्तराखंड़ में अधिकांशतः ऐसे पौधों को उगाया जाता है या उगते हैं जिनका औषधीय महत्व होता है। इन्हीं पौधों में शामिल है अंजीर (तिमला) और पेडू के औषधीय पौधें। पहाड़ों में तिमला को तिमुल, तिमलु, अंजीर, गूलर और बेडू को जंगली अंजीर आदि के नामों से भी जाना जाता है। तिमला और बेडू का फल हरे रंग का और पकने के बाद तिमला भूरे, बैंगनी, हलके लाल एवं पीले रंग का होता है, जबकि बेडू का फल बैंगनी रंग का होता है।

                                                          

तिमला और बेडू के फल को बीज समेत खाया जाता है और इसके अतिरिक्त इसके फल को कच्चा और सब्जी के रूप में भी खाया जाता है, हालांकि तिमला के रायते को बहुत अधिक पसंद किया जाता है। तिमला के पत्तों का उपयोग पत्तल बनाने और जानवरों के चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। इसका चारा दुधारू पशुओं में दूध वृद्वि के लिए अच्छा माना जाता है।

तिमला एवं बेडू के वृक्षों से एक सफेद रंग का दूध के जैसा स्राव निकलता है, जिसका उपयोग स्थानीय निवासी त्वचा में गहराई से फंसे कांटों को बाहर निकालने के लिए उपयोग किया जाता है। जैसा कि किसान भाई जानते हैं कि तिमला यानी अंजीर और इसकी प्रजाति का दूसरा पौधा बेडू उत्तराखंड़ के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अपने आप ही उगने वाले पौधें हैं। लोग इनका सेवन बड़े चाव से करते हैं और अधिकतर लोग इनके औषधीय गुणों से भी परिचित होते हैं। लेकिन पवर्तीय क्षेत्र के किसानों के द्वारा इनकी खेती नहीं की जाती है, बल्कि यह अपने आप ही उग आते हैं। इनके वृक्ष जंगलों में भी बहुत कम पाए जाते हैं, लेकिन पहाड़ी गाँवों के समीप, बंजर भूमि और खेतों की मेड आदि पर अपने आप ही उग आते हैं। इन पेड़ों के बीज को एक से दूसरे स्थान तक ले जाने में पक्षी सहयोग करते हैं, तो विभिन्न कीट और पक्षी इसके परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

बेडूः बेडू का पौधा उत्तराखड़ के अलावा पंजाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं सूडान आदि में पाया जाता है और इस प्राकर से सम्पूर्ण विश्व में बेडू की लगभग 800 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। बेडू मध्य हिमालयी क्षेत्र के जंगली फलों में से एक है। यहां समुद्र तल से 1,500 मीटर से ऊपर के स्थानों में जंगली अंजीर के पौधे बहुत ही सामान्य होते हैं। गढ़वाल एवं कुमाऊँ के क्षेत्रों में इनका उपयोग अधिकता के साथ किया जाता है।

बेडू के लाभ, गुण एवं उपयोगः आमतौर पर बेडू का पूरा पौधा ही उपयोग में लाया जाता है, इसके पेड़ की छाल, जड़, पत्ते और फल सब औषधीय गुणों युक्त होते हैं।

  • बेडू के फलों में अधिक मात्रा में काबर्निक पदार्थ होने के साथ ही साथ बेहतर एंटीऑक्सीडेंट गुण भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं और इसके चलते बेडू के फल को विभिन्न रोगों जैसे तंत्रका तंत्र के विकार, और जिगर से सम्बन्धित रोग के निवारण के लिए उपयोग किया जाता है।
  • इसके साथ ही बेडू सूजन से राहत प्रदान करने में भी मदद करता है और इसके रस का उपयोग मस्सों के उपचार हेतु किया जाता है।
  • बेडू के फलों का उपयोग कब्ज, फेफड़ों और मूत्राश्य के रोगों के उपचार के लिए भी पुराने समय से ही किया जाता रहा है।
  • पवर्तीय ग्रामीण क्षेत्रों में इसके फलों का उपयोग परम्परागत रूप से पीठ दर्द के उपचार के रूप में किया जाता है।

तिमलाः भारत में तिमला का उत्पादन महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड आदि राज्यों में किया जाता है, परन्तु इसके वैश्विक उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी बहुत कम है।

                                                     

अंजीर उत्तराखंड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में आसानी से पाया जाने वाला एक जंगली फल है। पहाड़ों में तिमला के पेड़ 800 से 2,000 मीटर तक की ऊँचाई पर आसानी से उग आते हैं।

तिमला के गुण, लाभ, और उपयोगः तिमला के फल का सेवन करने से अनेक रोगों के निवारण के साथ ही शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्चों की भी पूर्ती होती है। प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के निमार्ण का तिमला फल एक सम्भावित सोत्र होता है।

  • उच्च रक्तचॉप की समस्या से जूझ रहे मरीजों के रक्तचॉप को सामान्य बनाए रखने, अतिसार, घाव भरने, हैजा और पीलिया के जैसी गम्भीर बीमारियों की रोकथाम करने के लिए तिमा के फल का उपयोग किया जा सकता है।
  • तिमला का फल पाचन-तंत्र को नियमित करने में सहायता प्रदान करता है। तिमला के फल में पोटैशियम, फॉस्फोरस, फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, ऊर्जा, विटामिन बी एवं डी वि़मान होने के कारण यह कब्ज की समस्या का भी प्रभावी उपचार करता है। इसी प्रकार यदि पोष्टिक रूप से देखा जाए तो तिमला के फल में वसा, सोडियम और कोलेस्ट्रॉल नही होता है।
  • तिमला का फल कैंसर जैसे भयानक रोग में भी लाभ पहुँचाता है और इस सम्बन्ध में इसके ऊपर काफी शोध भी किए जा चुके हैं। मधुमेह में भी तिमला के फल को अति लाभकारी माना जाता है। इसके साथ ही तिमला के फल को हृदय रोगों के लिए भी काफी लाभकारी माना जाता है।
  • तिमला से निकाले जाने वाला तेल भी बहुत गुणकारी होता है। इसके तेल का उपयोग हृदय रोग, कैंसर और कोलेस्ट्रॉल को कम करने वाली दवाईयों के बनाने में किया जाता है।
  • तिमला में ग्लूकोज, फ्रक्टोज और सुक्रोज आदि भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, जो उच्च कैलोरी के स्रोत होते हैं। इसके फल में पाया जाने वाला कैल्शियम हड्डियों को मजबूती प्रदान करता है और इसके साथ ही यह अस्थमा और जुकाम में भी राहत प्रदान करता है।
  • तिमला के फल का उपयोग कच्चा और सुखाकर दोनों तरीके से किया जाता है और इसे पानी में भिगोकर सेवन करने से छाती के रोगों में इसे विशेष रूप से लाभकारी माना गया है।

जलवायु एवं तापमान

अंजीर की खेती करने के लिए शुष्क एवं कम आर्द्रता वाली जलवायु की आवश्यकता होती है। तिमला का फल गर्मियों के मौसम में पककर तैयार हो जाता है। उत्तरखंड़ के एक सुप्रसिद्व लोकगीत ‘‘बेडू पाको बारे मासा, ओ नरणी का फल पाको चैता मेरी छैला’’ केवल उत्तराखण्ड़ में ही नहीं अपितु दुनियाभर में प्रसिद्व है।

इस लोकगीत के माध्यम से बताया गया है कि बेडू का फल सालभर में पकता है, बावजूद इसके बेडू के फल का उत्पादन अधिकतर जून-जुलाई के माह में ही होता है। इसके लिए कम वर्षा की आवश्यकता होती है, क्षेत्रों के आधार पर इसकी किस्मों का चयन किया जाता है और किस्मों के आधार पर ही अलग अलग तापमान की आवश्यकता होती है।

मिट्टी

अंजीर की खेती के लिए नम, लेकिन अच्छे जल निकास वाली दोमट एवं क्षारीय मृदा उपयुक्त मानी जाती है। इसके साथ ही इसके पौधों की जड़ों के उत्तम विकास के लिए भूमि की ऊपरी सतह पर लगभग एक मीटर मिट्टी का होना लाभकारी माना जाता है।

खेत की तैयारी

अंजीर का एक पूर्णरूप से विकसित पौधा लगभग 50 वर्षों तक पैदावार देता रहता है। अतः इसका बागीचा स्थापित करने से पूर्व खेत में गड्ढे अच्छी तरह से खेदने चाहिए अर्थात जिस भूमि पर अंजीर के बाग को लगाया जाना है उसमें मई के महीने में 3 मीटर की दूरी पर एक मीटर वयस के गड्ढे खोद कर उन्हें दो सप्ताह के लिए खुला छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से खेत में मौजूद कीट एवं बीमारियाँ आदि धूप और पक्षियों के द्वारा पूरी तरह से नष्ट हो जाए।

पौध रोण एवं सिंचाई प्रक्रिया

जुलाई औश्र अगस्त के माह में पौधों की रोपाई करना उत्तम रहता है। रोपाई के लिए तैयार किए गए गड्ढ़ों में गोबर की खाद, नीम की खली, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश युक्त खाद और उर्वरकों को मिट्टी में मिलाकर और पौध रोपण कर गड्ढों को भर देना चाहिए और रोपाई के बाद गड्ढ़ों की सिंचाई कर देनी चाहिए। अंजीर के पौधों को पानी की कम मात्रा की आवश्यकता होती है।

यदि किसान भाई, अपनी नर्सरी बनाना चाहते हैं तो इसके लिए नर्सरी पहले से ही बनाकर तैयार कर लेनी चाहिए। नर्सरी बनाने के लिए नर्सरी वाले स्थान की मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। नर्सरी की स्थापना के लिए चौड़ाई एक मीटर रखें और उसकी लम्बाई अपनी आवश्यकता के अनुरूप रख सकते हैं। गोबर की खाद, राख, फफूंदनाशक तथा कीटनाशकों को अच्छी तरह से मिलाकर 24 घंटों के बाद तिमला एवं बेडू के पुराने वृक्षों से पिछले साल निकली टहनियों को चुनकर उनमें से 5 से 6 आंख वाली 10 इंच की लम्बाई वाली टहनियों को काट लेना चाहिए। इसके बाद छाँटी गई टहनियों की रोपाई नर्सरी में कर देनी चाहिए।

इनके रोपण का सबसे उत्तम समय बरसात के मौसम का माना जाता है कलम एक वर्ष में रोपण के लिए तैयार हो जाती हैं। यदि किसानों को अपना बागीचा स्थापित करना है तो अपने नजदीकी किसी नर्सरी से अंजीर की उत्तम किस्मों के पौधों को खरीद कर उनकी रोपाई कर सकते हैं।

अंजीर के पौधों को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए। अंजीर के बागों में वृक्षों की छाया कम होती है, अतः इसके बागों में मटर, मूँग, मसूर के जैसी दलहनी फसलें, मौसमी हरी पत्तेदार सब्जियाँ भी उगाई जा सकती हैं।

फलों की तुड़ाई एवं पैदावार

इसके फलों के पूरी तरह से पक जाने के बाद उनकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए। यदि बाजार की दूरी अधिक है तो इसके फलों का रंग बदलते ही तुड़ाई कर लेनी चाहिए। अंजीर का पेड़ तीन वर्ष की आयु फल देना आरम्भ कर देता है और प्रति पेड़ की दर से तीन किलोग्राम फल प्राप्त होते हैं। पेड़ की आयु बढ़ने के साथ ही पैदावार में भी वृद्वि होती है। जैसे कि 4 वर्ष के पेड़ से 6 किलोग्राम, 6 वर्ष के पेड़ से 12 किलोग्राम एव 8 वर्ष की आयु वाले पेड़ से 18 किलोग्राम फल प्रति पेड़ प्राप्त हो जाते हैं। इसके साथ ही बाग की अच्छी तरह से देखभाल करने पर 20 से 25 25 किलोग्राम तक फल प्रति पेड़ प्रत्येक वर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं।

बाजार में सूखे मेवे के रूप में अंजीर की कीमत उसकी गुणवत्ता के आधार पर 400 से 800 रूपए प्रति किलोग्राम के आसपास बनी रहती है। यदि फलों की बिक्री की व्यवस्था समुचित हो तो क्रेट में भरे अंजीर के ताजे फल 80 से 80 रूपए प्रति किलोग्राम की दर से आसानी से बिक जाते हैं।

वर्तमान समय में अंजीर के फलों की माँग स्थानीय बाजारों में भी काफी बढ़ रही है, इसके चलते ताजा अंजीर भी आसानी से बिक सकती है। ऐसे में उपरोक्त उपज का आधा भी यदि उत्पादक किसान को मिलता है तो अंजीर की खेती करना काफी लाभदायक सिद्व हो सकता है। ताजा अंजीर की माँग बाजार में कम ही रहती है जिसके चलते इसके कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत भाग सुखाकर सूखे मेवे के रूप में ही बेचना उचित रहता है।

अंजीर के सूखे फल के लिए अलग से कुछ प्रबन्ध करने होते हैं। यदि किसान के खेत में पर्याप्त बाग लगा है तो इसके फलों को मशीनों के द्वारा ही सुखाना बेहतर रहता है।

अंजीर की प्रमुख किस्में

पंजाबी अंजीर, पुनेरी अंजीर, दिनकर अंजीर, पूना अंजीर, अल्मा, ब्लैंच, ब्राउन टर्की, स्वीट जार्ज, जीएम-20, गोल्ड, जीटी-1, इटालियन-215, इटालियन-253, इटालियन-358, इटालियन-376, लौंग यैलो, एलएसयू पर्पल, एलएसयू स्कॉट्स ब्लैक, स्कॉट्स यैलो और टाइगर आदि अंजीर की कुछ खास किस्में हैं।      

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।