लहसुन की उन्नत एवं वैज्ञानिक खेती      Publish Date : 26/06/2025

          लहसुन की उन्नत एवं वैज्ञानिक खेती कैसे करें?

                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

हमारे देश में लहसुन एक महत्त्वपूर्ण एवं पौष्टिक कंदीय सब्जी है, जिसका प्रयोग आमतौर पर मसाले के रूप में किया जाता है। लहसुन दूसरी कंदीय सब्जियों के मुकाबले अधिक पौष्टिक गुणों से युक्त सब्जी है। यह पेट के रोग, आँखों की जलन, कान के दर्द और गले की खराश आदि के उपचार में भी कारगर होता है।

लहसुन की उन्नत किस्में

                                                                     

जी-1: लहसुन की इस किस्म की गांठे सफेद, सुगठित एवं मध्यम के आकार की होती हैं। लहसुन की प्रत्येक गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। लहसुन की इस किस्म बुवाई करने के 160-180 दिनों में यह पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म की पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति एकड़ तक मिल जाती है।

एजी-17: लहसुन की यह किस्म हरियाणा राज्य के लिए अधिक अनुकूल है। इस किस्म की गांठे सफेद व सुगठित होती है और एक गांठ का वजन 25-30 ग्राम होता है। प्रत्येक गांठ में 15-20 कलियाँ पाई जाती हैं। यह किस्म बुवाई करने के 160-170 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म पैदावार लगभग 50 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त हो जाती है।

मिट्टी और जलवायु

आमतौर पर लहसुन की खेती विभिन्न किस्मों की जमीन में की जा सकती है, फिर भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिसमें जैविक पदार्थों की मात्रा अधिकं हो तथा जिसका पीएच मान 6 से 7 के बीच हो, इसकी खेती के लिए सबसे अच्छी मानी जाती हैं। लहसुन की अधिक उपज और गुणवत्ता के लिए मध्यम ठंडी जलवायु अच्छी मानी जाती है।

खेती की तैयारी

खेत में 2 या 3 बार गहरी जुताई करें, इस के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर के क्यारियाँ व सिंचाई के लिए नालियाँ बना लें।

बुवाई करने का उचित समय

लहसुन की बुवाई करने का सही समय सितंबर के अन्तिम सप्ताह से अक्टूबर तक होता है।

बीज की मात्रा

लहसुन की अधिक उपज के लिए डेढ़ से 2 क्विंटल स्वस्थ कलियाँ प्रति एकड़ लगती हैं। बीज कलियों का व्यास 8-10 मिली मीटर होना चाहिए।

बुवाई करने की विधि

लहसुन की बुवाई के लिए क्यारियों में कतारों दूरी 15 सेंटीमीटर व कतारों में कलियों का नुकीला भाग ऊपर की ओर होना चाहिए और बुवाई के बाद कलियों को 2 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की तह से ढक देनी चाहिए।

लहसुन में खाद व उर्वरक का प्रयोग

खेत की तैयारी करते समय 20 टन गोबर की सड़ी हुई खाद देने के अलावा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश रोपाई से पहले अन्तिम जुताई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएँ। 20 किलोग्राम नाइट्रोजन बुवाई करने के 30-40 दिनों के बाद दें।

सिंचाई व्यवस्था

लहसुन की गांठों के अच्छे विकास के लिए सर्दियों में 10-15 दिनों के अंतर पर और गर्मियों में 5-7 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए।

सहायक कृषि क्रियाएँ व खरपतवार नियंत्रण

                                                

लहसुन की जड़ें कम गहराई तक जाती हैं। इसलिए खरपतवार की रोकथाम हेतु 2-3 बार खुरपी से उथली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। इस के अलावा फ्लूक्लोरालिन 400-500 ग्राम (बासालिन 45 फीसदी, 0.9-1.1 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ की दर से बुवाई से पूर्व छिड़काव करें या पेंडीमैथालीन 400-500 ग्राम (स्टॉम्प 30 फीसदी, 1.3-1.7 लीटर) का 250 लीटर पानी में घोल बना कर बुवाई करने के 8-10 दिनों बाद जब पौधे सुव्यवस्थित हो जाएँ और खरपतवार निकलने लगे, तब प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें।

गांठो की खुदाई का समय

फसल पकने के समय जमीन में अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए, अन्यथा पत्तियाँ फिर से बढ़ने लगती हैं और कलियाँ का अंकुरण होने लगता है। इस से लहसुन का भंडारण प्रभावित हो सकता है।

पौधों की पत्तियों में पीलापन आने व सूखना शुरू होने पर सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। इस के कुछ दिनों बाद लहसुन की खुदाई कर सकते हैं। खुदाई के बाद गांठों को 3 से 4 दिनों तक छाया में सुखाने के बाद पत्तियों को 2-3 सेंटीमीटर छोड़ कर काट लें या 25-30 गांठों की पत्तियों को बांध कर गूछियां बना लें।

भंडारण

लहसुन का भंडारण गूच्छीयों के रूप में या टाट की बोरियों में या लकड़ी की पेटियों में रखकर किया जा सकता हैं। भंडारण कक्ष सूखा और हवादार होना चाहिए। शीतगृह में इसका भंडारण 0 से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान व 65 से 75 फीसदी आर्द्रता पर 3-4 महीने तक किया जा सकता है।

पैदावार

इस की औसतन उपज 4-8 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है।

बीमारियाँ व लक्षण

आमतौर पर लहसुन की फसल में बैगनी धब्बा का प्रकोप हो जाता है। इस रोग के प्रभाव से पत्तियों पर जामुनी या गहरे भूरे धब्बे बनने लगते हैं। इन धब्बों के अधिक फैलाव से पत्तियाँ नीचे गिरने लगती हैं। इस बीमारी का प्रभाव अधिक तापमान और अधिक आर्द्रता में बढ़ता है। इस बीमारी की रोकथाम के लिए इंडोफिल एम् 45 या कॉपर अक्सिक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ की दर से 200-500 लीटर पानी में घोल बनाकर और किसी चिपकने वाले पदार्थ (सैलवेट 99, 10 ग्राम, ट्रीटान 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर) के साथ मिला कर 10-15 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।