कटुआ कीट का प्रबन्धन      Publish Date : 24/03/2025

                           कटुआ कीट का प्रबन्धन

                                                                                                                    प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य

प्रमुख रूप से कटुआ कीट की दो प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से पहली है, एग्रोटिस सेजिटम यानि कि आम कटुआ कीट और दूसरी है एग्रोटिस इपसिलोन यानि कि काला कटुआ कीट। इस कीट की यह दोनों ही प्रजातियां विभिन्न प्रकार की सब्जी की फसलों, फूलों एवं अन्य फसलों को काफी हानि पहुँचाती हैं। इनकी पहली प्रजाति एग्रोटिस सेजिटम, ऊँचें पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है तो दूसरी, एग्रोटिस इसिलोन मध्य पर्वतीय एवं निचले क्षेत्रों में पाई जाती है। इस कीट की उक्त दोनों ही प्रजातियां विभिन्न प्रकार की फसलों को लगभग 30 प्रतिशत तक की हानि पहुँचाती हैं।

कीट के लक्षण एवं क्षति का स्वरूप

                                                    

कटुआ कीट अपने जीवन काल में केवल सूंड़ी की अवस्था में ही फसलों को नुकसान पहुँचाता है और सूंड़ी की पांचवीं एवं छठी अवस्था फसलों को अत्याधिक नुकसान पहुँचाती हैं। यह कीट फसलों के आमतौर पर रात्री के समय नुकसान पहुँचाते हैं। कटुआ कीट की सुण्ड़ियां पौधों को जमीन की सतह से आधा या फिर उसे पूरी तरह से ही काटकर अलग कर देती है। इससे पौधे लटक कर पीले पड़ जाते हैं। कीट की यह सुण्ड़ियां पौधों की पत्तियों को खाकर उनमें छेद कर देती हैं और पौधों की टहनियों को भी काट देती हैं।

कटुआ कीट पौधों के कटे हुए अवशेषों को जमीन के अंदर ले जाकर दिन के समय उनको खाते हैं। कटे हुए पौधे एवं मिट्टी में दबे हुए पौधों के अवशेष खेत में इस कीट की उपस्थिति का संकेत देते हैं। इस कीट का फसलों में प्रकोप विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग देखने को मिलता है।

कटुआ कीट, बहुतायत में पाया जाने वाला एक बहुभक्षी कीट है। यह कीट सब्जी, अनाज और दलहन जैसे आलू, गोभी, मटर भिंड़ी, शिमला मिर्च, बैंगन, टमाटर, खीरा, मक्का, चना एवं सरसों आदि की फसलों को अत्याधिक नुकसान पहुँचाने की क्षमता रखता है। इस कीट की सुण्ड़ियां दिन के समय जमीन की ऊपरी सतह में छिपकर रहती हैं तथा रात के समय में जमीन के बाहर आकर छोटे पौधों को जमीन की सतह से थोड़ा सा ऊपर से काट देती हैं। कीट की सुण्ड़ियां पौधों के पत्तों एवं तने के कोमल भागों को काटकर खाती हैं। इस कीट इसी व्यवहार के चलते इसे ‘ कटुआ कीट’ का नाम दिया गया है।

इस कीट के पतंगे सदैव रात्री के समय ही बाहर आते हैं तथा उपयुक्त स्थान पर अंड़े देते हैं। यह जमीन में पड़ी दरारों के बीच, पौधों के तनों या उसके आसपास के स्थानों पर हो सकते हैं। जिन क्षेत्रों में पर्याप्त नमी उपलब्ध हो, खरपतवार की अधिकता और जल निकास की अच्छी व्यवस्था न हो, ऐसे स्थानों पर इस कीट का प्रकोप अधिक देखने को मिलता है। यह कीट पूरे भारतवर्ष में मैदानी क्षेत्रों से लेकर ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों तक समान रूप से पाया जाता है।

कीट का समेकित प्रबन्धन कैसे

                                              

  • फसल की बुवाई करने से पूर्व खेत से खरपतवार एवं पुरानी फसल के अवशेषों को पूर्णरूप से खेतों से हटा देना चाहिए नही तो इस कीट की सुण्ड़ियां इन्हीं में रहकर इन्हें खाती रहती हैं।
  • खेत की गहरी और अच्छे से जुताई करने से यह कीट परजीवी और पक्षियों आदि के लिए उपलब्ध हो जाते हैं।
  • इस कीट के व्यवस्यक रात्री के समय ही सक्रिय होते हैं और यह प्रकाश के प्रति आकर्षित होते हैं, तो इन्हें प्रकाश प्रपंच के माध्यम से पकड़कर नष्ट किया जा सकता है।
  • खेत के चारों ओर सूरजमुखी के पौधे लगाकर भी इस कीट का बेहतर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि सूरजमुखी के पौधें इन्हें अपनी ओर आकर्षित करते हैं और इस प्रकार से इन्हें फसल तक पहुँचने से पहले ही नियंत्रित किया जा सकता है।

जब कटुआ कीट छोटे होते हैं तो उसी समय इनका नियंत्रण करना आवश्यक होता है। इसके लिए फसल की बुवाई अथवा रोपाई के बाद फसल की नियमित रूप से निगरानी करना आवश्यक है। फसल के निरीक्षण के दौरान यदि सुबह के समय छोटे पौधों के आसपास पौधों के कटे हुए अवशेष दिखाई दे तो पौधों के पास छुपे हुए कीट की सुण्ड़ियों को जमीन से निकाल कर उन्हें नष्ट कर देना चाहिए। यदि खेत में पांच प्रतिशत से अधिक पौधें कटे हुए दिखाई देते हैं तो कीट का नियंत्रण करना अति आवश्यक है। कुछ फसल जैसे टमाटर और मिर्च आदि की निगरानी तो फसल चक्र के पूरा होने तक ही करना अनिवार्य है।

कटुआ कीट का जीवन चक्र

कटुआ कीट के पतंगों की संख्या मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर माह के दौरान बहुत अधिक होती है। व्यस्क पतंगों का आकार 18-22 मि.मी. लम्बा तथा फैले हुए पंखों की चौड़ाई 40-45 मि.मी. तक होती है। मादा कीट के अगले पंख पीले-भूरे तथा काले रंग के होते हैं। इस कीट की एक मादा 400 से 1000 तक अंड़े देती है और अंड़े का विकास 3-5 दिनों में होता है। इसके अंड़े प्रारम्भ में सफेद एवं समय के साथ भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं और इसकी सूण्ड़ी अवस्था 24 से 40 दिनों तक की होती है।

सूण्ड़ी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हरे-सलेटी रंग की होती जो कि पूर्णरूप से विकसित होने पर 3-10 सें.मी. की गहराई पर प्यूपा बनाती है। यह प्यूपा 10-15 दिनों के बाद वयस्क के रूप में आ जाता है और इसका जीवन काल 40-45 दिनों का होता है।  

कीट का रासायनिक नियंत्रण

                                                      

  • कटुआ कीट के नियंत्रण के लिए डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 750 मि.ग्रा./हेक्टर या क्लोरपाइरीफॉस 20 ई.सी. 2.25 लीटर/हेक्टर की दर से छिड़काव करने से कीट का नियंत्रण होता है।
  • यह कीट रात्रि के समय सक्रिय होता है अतः ऐसे में इन कीटनाशकों का उपयोग भी शाम के समय ही करना उचित रहता है और छिड़काव पौधों के तनों की ओर ही करना चाहिए।

यदि आपको अपनी फसल में रासायनिक कीटनाशकों का छिड़काव नहीं करना है तो रोगजनक फफूंद जैसे- मेटाराइजियम एनीसोप्ली और व्यूवेरिया बेसियाना का उपयोग कर सकते हैं। रोगजनक सूत्रकृमि जैसे हैटरोहबडाईटिस बैक्टीरिओफोरा एवं वायरस जैसे एनपीवी आदि भी कटुआ कीट की रोकथाम करने में काफी प्रभावी पाए गए हैं। कीट के जैविक नियंत्रण के लिए खेत में पर्याप्त नमी का उपलब्ध होना भी अति आवश्यक है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।