
गन्ना उत्पादन की नई तकनीक अधिक उत्पादन एवं बेहतर आय Publish Date : 16/03/2025
गन्ना उत्पादन की नई तकनीक अधिक उत्पादन एवं बेहतर आय
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
गन्ना, भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्रमुख फसल के रूप में उगाया जाता है। गन्ने की खेती 110 से अधिक देशों में की जाती है। ब्राजील व भारत विश्व के कुल गन्ना उत्पादन का 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। भारत, गन्ना उत्पादन की दृष्टि से विश्व में दूसरे स्थान पर आता है। हमारे देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गुणात्मक सुधार लाने में गन्ने की प्रमुख भूमिका रही है। वस्त्र एवं कपास उद्योग के बाद कृषि आधारित दूसरा सबसे बड़ा उद्योग चीनी उद्योग है।
गन्ना एवं चीनी उद्योग न केवल 60 लाख किसानों व उनके परिवारों को रोजगार प्रदान करते हैं, बल्कि उनकी आर्थिक समृद्धि व खुशहाली के लिए आवश्यक संसाधनों को उपलब्ध कराने में भी मददगार है। इसके अतिरिक्त चीनी मिलों के माध्यम से रोजगार भी उपलब्ध होता है।
देश में वर्ष 2015-16 में 49.1 लाख हे. क्षेत्र से 69.4 टन/हे. उत्पादकता के साथ 3414.2 लाख टन गन्ने का उत्पादन किया गया जबकि गन्ने की उत्पादन क्षमता 474 टन/हे. आंकी गई है। स्पष्ट है कि उन्नत तकनीक एवं प्रजातियों को अपनाकर गन्ना उत्पादकता में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। इससे गन्ना आधारित चीनी उद्योग तथा गन्ना कृषक प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित हो सकते हैं।
गन्ने की उपज में अस्थिरता, बढ़ती उत्पादन लागत, लाभांश में कमी एवं उत्पदकता में गिरावट गन्ना कृषकों के समक्ष एक प्रमुख चुनौती हैं।
नवीनतम कृषि अनुसन्धान के फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों वाली जलवायु दशाओं के अनुकूल गन्ने की उन्नत प्रजातियों का विकास किया गया है। इसके अतिरिक्त गन्ना आधारित फसल विविधकरण, उत्पादन तकनीक, श्रमिक लागत में कमी करने के लिए अधिक दक्षता वाले कृषि यंत्रों का विकास, एकिकृत फसल सुरक्षा आदि के समन्वित प्रयोग से कृषकों की वर्तमान आय को आने वाले वर्षों में बढ़ा पाना संभव है।
उन्नत गन्ना उत्पादन तकनीक
अधिक उत्पादकता एवं लाभ प्राप्त करने हेतु उन्नत प्रजातियों का चयन महत्वपूर्ण है। गन्ने की संस्तुत प्रजातियों में अगेती (10 माह) तथा मध्य पछेती (11-12 माह में पकने वाली) किस्मों का चयन कृषकों को उपज एवं गुणवत्ता के आधार पर करना होता है। गन्ने की अधिक उत्पादकता एवं कृषकों को अधिक लाभ हेतु उन्नत प्रजातियों तथा अन्य गन्ना उत्पादन तकनीक का संक्षेप में विवरण इस प्रकार से हैः-
उन्नत प्रजातियाँ
उन्नत किस्मों की क्षमता के अनुसार उत्पादन ले पाना तभी संभव है, जब उनके लिए उचित फसल ज्यामिति तथा अनुकूल जल एवं मृदा उपलब्ध हों। गन्ने की आँख के समुचित अंकुरण, जड़ों के विकास तथा फसल की ओज के लिए प्रारंभिक आवश्यकता है कि गन्ना बुआई के समय बीज गन्ना एवं मृदा के मध्य उत्तम सम्पर्क हो। जड़ों की मृदा में उत्तम सम्पर्क हो। जड़ों की मृदा के गहरे संस्तरों तक पहुँच के लिए मृदा का आभासी घनत्व कम तथा जल धारण क्षमता अधिक होनी चाहिए।
मृदा के इन भौतिक गुणों में सुधार के लिए प्राथमिक कर्षण क्रिया के तौर पर सब स्वयालर द्वारा एक मीटर के अंतराल पर 45 से 50 सें. मी. गहरी आड़ी-टेड़ी जुताई करने से लगभग 12 प्रतिशत अधिक गन्ना उपज प्राप्त की गई है।
इसी क्रम में उपयुक्त बुआई विधियाँ, सूक्ष्म सिंचाई विधियाँ, जल का मितव्ययी उपयोग, सूक्ष्म समेकित पोषक तत्व का प्रबंधन एवं गन्ना आधारित विभिन्न फसल प्रजातियों का विकास प्रमुख है। इन सब तथ्यों पर ध्यान देकर गन्ना उपज में आ रहे ठहराव को समाप्त कर गन्ना उत्पादकों के लिए अधिकतम आय की प्राप्त करना संभव है।
गन्ना बुआई की उन्नत विधियाँ
गन्ने की बुवाई करने की विभिन्न बुआई विधियों में कूंड विधि, समतल विधि, गड्ढा विधि और नाली विधि आदि से गन्ने की अच्छी उपज प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की गई है। वर्तमान में नाली विधि द्वारा गन्ना बुआई में उत्तरोतर वृद्धि हो रही है, क्योंकि इसमें गन्ने की अधिक उपज के साथ-साथ पोषक तत्व उपयोगी क्षमता एवं लाभ-लागत अनुपात अधिक पाया गया है। इसके अतिरिक्त पेड़ी फसल से भी अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में गन्ने की बुआई 30 सें.मी चौड़ी एवं 30 सें.मी. गहरी नालियों में की जाती है। एक नाली में गन्ने की दो नालियों की केंद्र से दूरी 150 सें.मी. (120:30) रखी जाती है।
सिंचाई जल को अधिक समय तक ग्रहण करने के कारण इस विधि से सिंचाई जल में कमी की जा सकती है। जड़ों की गहराई तथा वृद्धि अधिक होने से समतल विधि की अपेक्षा इस विधि से लगभग 30 प्रतिशत तक गन्ने की उपज अधिक प्राप्त होती है।
गन्ने के साथ अंतःफसल से आय वृद्धि एवं टिकाऊपन
कम अवधि में अधिक आय देने वाली फसलों को गन्ने के साथ अंतःफसल के रूप में उगाकर मृदा की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, उत्पादन लागत कम करने और उत्पादन पद्धति के टिकाऊ बनाये रखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार फसल विविधकरण में उपलब्ध स्रोतों का समुचित उपयोग कर सीमांत और लघु किसानों के आर्थिक और सामजिक स्तर को उठाया जा सकता है।
इसके साथ एकल एवं सतत कृषि के दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है। गन्ने के कुल क्षेत्रफल का 10 प्रतिशत शरदकाल में, 60-65 प्रतिशत बसंतकाल में और 20-25 प्रतिशत ग्रीष्मकाल में बोया जाता है। उपर्युक्त ऋतुओं में गन्ना क्रमशः 90, 75 एवं 60 सें.मी. की दूरी पर बोया जाता है। उत्तर भारत में गन्ना मुख्यतः शरदकाल (अक्टूबर) और बसंतकाल (फरवरी-मार्च) में लगाया जाता है।
ग्रीष्मकाल को छोड़कर बाकी दोनों ऋतुओं में गन्ने के साथ अंतःफसल खेती की जा सकती है। अतः गन्ने रूप में विविधकरण पद्धति से दलहनी तथा तिलहनी फसलों को गन्ने के साथ लगाकर इनकी उत्पादकता भी बढ़ायी जा सकती है। शीतकालीन पेड़ी में चारा अंतःफसलों से चारा उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ गन्ना पेड़ी में आँखों के प्रस्फूटन में बढ़ोतरी संभव है।
फर्ब विधि द्वारा गेहूं + गन्ना फसल पद्धति
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिकतर किसान गन्ने की बुआई गेहूं की फसल होने लेने के बाद करते हैं। गेहूं की फसल के बाद लगाये गये गन्ने के उत्पादन में लगभग 35 से 50 प्रतिशत की कमी हो जाती है। फर्ब विधि द्वारा रेज्ड बेड पर, जो कि लगभग 50 सें.मी. चौड़ा होता हैं गेहूं की तीन पंक्तियों की बुआई 17 सें.मी. की दूरी पर बुआई के उपयुक्त समय नवंबर या दिसंबर के प्रथम सप्ताह में की जाती है। रेज्ड बेड, नालियां बनाने के लिए ट्रैक्टर चलित रेज्ड बेड मेकर कम फर्टी सीड ड्रिल का प्रयोग किया जा सकता है।
गन्ने की बुआई भी नवंबर में 80 सें.मी. दूरी पर स्थित नालियों में गेहूं बोने के तुरंत बाद ही हल्की सिंचाई कर देते हैं। गन्ने के टुकड़ों को सिंचित नालियां में डालते हुए पैर से दबाते हुए चलते है। दिसंबर में बोई जाने वाले गेहूं की दशा में गन्ने की बुआई गेहूं की खड़ी फसल में 80 सें.मी. दूरी पर स्थित नालियों में फरवरी में की जाती है।
यह उपोष्ण कटिबंधीय भारत में बसंतकालीन गन्ना बोने का उपयुक्त समय है। गन्ने की बुआई गेहूं में सिंचाई के साथ की जाती है। गेहूं में सिंचाई सायंकाल में की जाती है। दूसरे दिन जब मिट्टी फूल जाती है तथा हल्का पानी नालियां में रहता है तब गन्ने के दो या तीन आँखों वाले टुकड़ों को डाल कर पैरों से कीचड़युक्त नालियों में दबाते हुए चलते हैं।
बीज गन्ना की मितव्ययी एवं शीघ्र बहुगुणन
परंपरागत विधियों द्वारा बुआई करने बीज गन्ने की प्रयुक्त मात्रा (6-8 टन/हे.) को कम करने तथा उन्नत बीज गन्ना के त्वरित बहुगुणन के उद्देश्य से विकसित की गयी गांठे एक अच्छा विकल्प साबित हो रही हैं। इसमें बीज गन्ना की मात्रा 1.5 से 2 टन/हे. के लिए पर्याप्त होती है। इस विधि में सिर्फ गन्ने की एक गांठ ही बीज के रूप में प्रयोग की जाती है।
पोषक तत्व प्रबंधन
गन्ना, एक बहुवर्षीय व्यावसायिक फसल है और यह काफी अधिक मात्रा में जैव-पदार्थ उत्पादित करता है। इसलिए गन्ना आधारित फसल उत्पादन प्रणाली में पोषक उत्पादक में पोषक तत्व प्रबंधन एक प्रमुख पहलू है। गन्ने की फसल से 100 टन/हे. उपज प्राप्त करने के लिए नाइट्रोजन 20 8 किग्रा., 55 किग्रा. फास्फोरस, 280 किग्रा. पोटेशियम, 30 किग्रा., सल्फर, 3.5 किग्रा. लौह तत्व, 1.2 किग्रा. मैंगनीज ताथा 0.6 किग्रा. जिंक मृदा से अवशोषित होता है। इसलिए इन तत्वों की मृदा में लगातार प्रतिपूर्ति करते रहना आवश्यक है।
समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन प्रणाली में हरी खाद के रूप में ढैंचा तथा अंतःफसली खेती में दलहनी फसलों का समावेश किया जाना चाहिए। जैव उर्वरक (नाइट्रोजन स्थिरिकारक, फॉस्फेट विलायक जीवाणु तथा पोटेशियम विलायक) आदि का प्रयोग करने से अकबर्निक खादों के प्रयोग में कमी की जा सकती है तथा इससे गन्ना उपज भी प्रभावित नहीं होती।
दलहनी फसल, गन्ने की खेती में हरी खाद/दाल/चारा हेतु या तो अनुक्रम में या अंतःफसल के रूप में उगाई जाती है। मृदा उत्पादकता बढ़ाने के लिए शरदकालीन गन्ने के साथ मटर, मसूर, मेथी और बसंतकालीन गन्ने के साथ मूंग, लोबिया, उड़द आदि अंतःफसल के रूप में अच्छे विकल्प है। गन्ने से पूर्व हरी खाद हेतु ली गई दलहनी फसल 19 से 43 प्रतिशत गन्ने की पैदावार बढ़ा देती है और 41 से 85 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हेक्टर मृदा में स्थिर कर देती है। जैविक खाद जैसे गोबर, कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट, प्रेसमड, हरी खाद आदि सभी मुख्य एवं सूक्ष्म-मात्रिक पोषक तत्वों के स्रोत हैं।
गन्ने की फसल में कल्ले बनने की अवस्था में खरपतवारों की मौजदूगी से मिल योग्य गन्नों की संख्या तथा वजन में कमी आती है जिससे गन्ने की उपज कम हो जाती है। खरपतवार प्रबंधन क्रियाओं में पाया जाता गया है कि एट्राजीन नामक रसायन की 2 किग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हे. (जमाव पूर्व) मात्रा के प्रयोग के पश्चात् 2, 4-डी की 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व मात्रा (जमाव पश्चात) का प्रयोग करने और एक बार अच्छी प्रकार से निराई-गुड़ाई करने से प्रभावी रूप से खरपतवार नियंत्रण होता है। इससे गन्ना उपज में आशातीत वृद्धि होती है। पेड़ी गन्ने में पताव बिछावन से भी प्राकृतिक रूप से खरपतवार नियंत्रण हो जाता है।
अधिक उपज वाली मुख्य गन्ना किस्में एवं उनकी प्रमुख विशेषताएं
गन्ने की अगेती किस्में
को-022 38 (करन-4)- यह गन्ना माध्यम मोटी तथा धूसर भूरे रंग का होता है। यह लाल सड़न रोग की प्रतिरोधी किस्म है। इसकी गन्ना उपज 80 तन प्रति हे. तथा इसमें शर्करा 18 प्रतिशत तक पाई गयी है।
को-0237 (करन-8)- इस प्रजाति का गन्ना माध्यम मोटा तथा पीले रंग का होता है। यह लाल सड़न रोग की प्रतिरोध किस्म है। 70 टन प्रति हे. उपज क्षमता के साथ इसमें 18.75 प्रतिशत शर्करा उपलब्ध होती है।
को. पीके 05191- इस किस्म का गन्ना माध्यम मोटाई का होता है। यह किस्म लाल सड़न रोग के प्रति मध्यम अवरोधी है। यह किस्म सूखा एवं जलप्लावित दोनों ही क्षेत्रों के लिए भी उपयुक्त पाई गई। इसकी उपज 85-90 टन प्रति हे. तथा शर्करा 17 प्रतिशत होती है।
को.लख 94184- शीघ्र पकने वाली यह गन्ना प्रजाति पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार प्रांत में जलप्लावन की स्थिति के लिए सहनशील होने के कारण गन्ना उपज में कमी नहीं आने देती तथा इसकी पेड़ी फसल भी अच्छी प्राप्त होती है।
को.शा.-8272- उत्तर भारत के लिए यह शीघ्र पकने वाली प्रजाति बावक फसल की उपज 84 से 87 टन प्रति हे. देने में सक्षम है।
मध्य देर से पकने वाली गन्ना किस्में
को.पंत-97222- इस किस्म का गन्ना माध्यम मोटाई तथा हल्के हरे रंग का होता है। यह लाल सड़न के प्रति माध्यम रोगरोधी किस्म है। इस किस्म की औसत उपज 80-85 टन प्रति हे. तथा इसमें शर्करा 17 प्रतिशत है।
को.-128- गन्ने की यह किस्म लाल सड़न रोग के प्रति माध्यम अवरोधी है तथा इसकी पेड़ी फसल भी उत्तम होती है। इसकी उपज 80-85 टन प्रति हे. तथा शर्करा 16.5-17.5 प्रतिशत है।
को.-05011 (करन-9)- इस किस्म का गन्ना माध्यम मोटाई का होता है। यह किस्म लाल सड़न रोग के प्रति माध्यम अवरोधी है। इसकी पेड़ी फसल बहुत उत्तम होती है। इसकी उपज 75.8 टन प्रति हे. तथा इसमें शर्करा 17-18 प्रतिशत मिलती है।
जल प्रबंधन
गन्ने की फसल की जल मांग लगभग 1400 से 2300 मिमी. उपोष्ण तथा 2000 से 3500 मि.मी. उष्ण क्षेत्र में होती है। शोधों में पाया गया कि पताव बिछावन, एकांतर नाली विधि तथा चिन्हित की गई विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं में जल उपलब्धता के अनुसार सिंचाई करने से गन्ने उपज में वृद्धि होती है तथा जल उपयोग क्षमता भी अच्छी रहती है। इसके अतिरिक्त सूक्ष्म सिंचाई विधियों में टपक सिंचाई विधि से काफी अच्छे परिणाम मिले हैं। इसी के साथ उचित पोषक तत्वों को पौधों में दिया जा सकता है। इस विधि से पेड़ी की फसल बहुत अच्छी होती थी तथा जल एवं पोषक तत्वों की हानि नहीं होती है।
सतह एवं उप-सतह पर टपक सिंचाई विधि गन्ने में 40 प्रतिशत तक पानी बचत के साथ 20 प्रतिशत तक गन्ना उपज में वृद्धि पायी गई है।
टपक सिंचाई विधि द्वारा नाइट्रोजन देने पर 25 प्रतिशत बचत आंकी गई है। गहरी नाली में दो पंक्ति विधि द्वारा बुआई करने पर टपक सिंचाई विधि अपनाने से बावक गन्ने की उपज एवं पेड़ी उपज में वृद्धि पाई गई है।
शरद कालीन गन्ने में अंतःफसली खेती
शरदकालीन गन्ने की पैदवार बंसतकालीन गन्ने की तुलना में 15 से 20 प्रतिशत तथा चीनी का परता 0.5 प्रतिशत अधिक होता है। गन्ना+आलू की अंतःफसली खेती से आलू+गन्ना क्रमबद्ध पद्धति की तुलना में दोनों फसलों की उपज में बढ़ोतरी के साथ-साथ उर्वरक में भी बचत होती है। इसी तरह गन्ने की पैदावार पर सकरात्मक प्रभाव पड़ता है। शरदकालीन गन्ने की पंक्तियों के बीच मसूर की दो पंक्तियों के बीच मसूर की दो पंक्तियों की अंत-फसली बुआई पद्धति में 150 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हे., एजोस्पिरिलम के साथ प्रयोग करने से गन्ना समतुल्य उपज में वृद्धि के साथ-साथ 37.5 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हे. की बचत भी होती है। शरदकालीन गन्ने में सरसों की 1:1 पद्धति से शुद्ध लाभ में वृद्धि होती है। इसी प्रकार सरसों की दो पंक्तियों की अंतःफसल (1:2) को लिया जा सकता है।
बसंत कालीन गन्ने के साथ अंतःफसली खेती
बसंतकालीन गन्ना- पेड़ी फसल पद्धति में कार्बेनिक पदार्थों का संरक्षण एवं खरपतवार नियंत्रण मुख्य मुद्दा है। इसका समाधान दलहनी अतंःफसलों के चयन द्वारा किया जा सकता है। बंसत कालीन गन्ने के साथ मूंग और उड़द की अंतःफसली खेती मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और हरियाणा में की जाती है। द्वि-उद्देश्यीय दलहनी फसलों के समावेश से गन्ना+लोबिया एवं गन्ना+मूंग पद्धति के माध्यम से किसानों के शुद्ध लाभ में वृद्धि की जा सकती है। इन फसलों की फली तोड़ने के बाद पौधों को हरी अवस्था में ही गन्ने की दो पंक्तियों के बीच में पलट कर दबा देने से 30 से 40 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हे. की बचत होती है।
लोबिया और मूंग की सहफसली पद्धति से प्रति हे. क्रमशः 70.6 और 48.1 किग्रा. नाइट्रोजन का योगदान होता है? बंसतकालीन गन्ने की पंक्तियों के बीच के स्थान पर हरी खाद के लिए ढैंचा की सघन बुआई से खरपतवार का नियंत्रण प्रभावी ढंग से हो जाता है। ढैंचा के सड़ने की प्रक्रिया में निकलने वाले रसायन (एलिलोपैथी), मोथा जैसे खरपतवार के जमाव को रोकते है। इसके साथ-साथ मृदा में तत्वों को संतुलित रखते हैं।
शीतकालीन पेड़ी आधारित अंतःफसली खेती
जाड़े में शुरू की गई पेड़ी में अधो-भूमिगत स्थित गन्ने की आँखों का न जमना फसल के असफल होने का मुख्य कारण है। गन्ने की अधिक शर्करायुक्त शीघ्र पकने वाली प्रजातियों के साथ यह एक विशेष समस्या है। उपयुक्त तापमान आने तक इन अधो-भूमिगत आँखों की दैहिक क्रियाओं को सक्रिय अवस्था में लाकर इस समस्या का समाधान संभव है। सघन तथा जल्दी बढ़ने वाली चारा फसलों जैसे- बरसीम एवं सेंजी की बुआई कर जाड़े के प्रभाव में कम करके पेड़ी में अच्छा फुटाव प्राप्त किया जा सकता है। यह चारा फसलें पेड़ी में जीवंत अवरोध परत के रूप में जड़ क्षेत्र का ताप नियंत्रण तथा भूमिगत स्थित आँखों को पाले के कुप्रभाव से बचाव करती हैं। इससे बसंत आने पर पेड़ी में उपयुक्त फुटाव हो जाता है और गन्ना-पशु पद्धति को बल मिलता है।
मिट्टी चढ़ाना व बंधाई करना
गन्ने की बढ़ी हुई फसल को गिरने से बचाने के लिए जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में गन्ने की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाई जानी चाहिए। अगस्त में पहली बंधाई पंक्तियों में खड़े प्रत्येक थान की अलग-अलग करें। दूसरी बधाई सितंबर में दो आमने-सामने के थानों को आपस में मिलाकर करें। ऐसा करने से वर्षा ऋतु में तेज हवा के बहाव के बावजूद भी गन्ना कम गिरेगा और उपज तथा शर्करा परतों में कमी नहीं आएगी।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।